बुधवार, जून 17, 2009

गदहों का विद्रोह

चलो घर चले ,सड़कों पर बहुत घूम लिया ,
या किसी पार्क में बैठ के , आज के हंगामें की बात करें ,
जात -धर्म के नाम पर ,राह चलते इंसानों को मारना -पीटना ,
उसने रो के खा था ,मुझसे .........मै भी अपने शहर में होता आज ,
तुम मेरे साथ कुछ नही कर पाते ,
पुरानी कहावत याद है ना .........अपनी गली में .............!
शब्जी बेचने वाला ,आखरी साँसे गिन रहा था ,
कुछ लोग उसकी शब्जी चुरा रहे थे ,
जिन लोगो ने उसकी शब्जी बना कर खाई ...
वो लोग अपने -अपने घरों में ,सुबह मरे हुए मिले ,
यह उस शब्जी बेचने वाले का आखरी श्राप था ............

3 टिप्‍पणियां:

विवेक ने कहा…

उम्दा...निश्चित रूप से आपके अनुभवों की लंबाई ही नहीं गहराई भी बहुत ज्यादा है...

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) ने कहा…

भाईसाहब भंगार नहीं अंगार है अंगार.... अनुभवों का हर आयाम अत्यंत विस्तारित है सिर्फ़ लंबाई और गहराई ही क्या....
सादर
डा.रूपेश श्रीवास्तव

Unknown ने कहा…

atyant uttam kavita............
badhaai !