मंगलवार, अगस्त 31, 2010

९१ कोजी होम

........मीरा फिल्म को बनते -बनते करीब तीन साल लग गये ,

प्रेम जी हम लोगों को .....हर महीने की दस तारीख को तनख्वाह

देते रहे .....एक दिन ....गुलज़ार साहब को पता चला ..... हम सहायक

लोग तनख्वाह ले रहें हैं .......उन्होंने हम लोगों पे गुस्सा किया ... कहने लगे

तुम लोगों का तो साल भर क़ा एग्रीमेंट था ....मुझसे वगैर बताये .....तुम लोग

क्यों प्रेम जी से पैसे लेते रहे ?......हम सभी चुप ....क्या बोलते ....एक मुजरिम

की तरह खड़े रहे .....

...............मीरा की शूटिंग के दौरान ..... बहुत सारी घटनाएं हैं जिसने मेरे जीवन

पे बहुत सारे रंग बिखेरे हैं ......उस समय मैं सांताक्रुज पश्चिम में ....वतौर पेईंग गेस्ट

रहता था ....सन ७५ था । मेरे माता पिता घूमने के लिए आये .....पहले भी कई बार आये

थे ....।तब वह लोग रेलवे गेस्ट हाउस बांद्रा में रुकते थे ......इस बार जिद कर के ...अपने साथ

रुकने की बात की ....एक छोटा सा कमरा था ...एक बेड था ,उसको खडा कर दिया ...और गद्दा

बिछा दिया .....दिन भर सभी लोग घूमते रहे ....रात में जब सोने आये ....हम सभी लोग

नीचे सो गये .....रात करीब ग्यारह बजे .....मेरेघर की लैंड लेडी ....कमरे पे आई और कहने

लगी .......यह कमरा ....वतौर पेइंग गेस्ट दिया गया है ......आप को ...सिर्फ आप ही रह सकते

हैं ,आप के माता पिता नहीं ......रात को ग्यारह बजे ...यह आ के कहना ......मेरा गुस्सा सातवें

आसमान पे जा बैठा .......पिता जी ने शांत किया ......हम सभी लोग रात में ही एक होटल में गये

और रात वहीं बिताई ......अपने आप पे गुस्सा आ रहा था .....इस शहर में रह के क्या फायदा


.... अपने शहर चला जाऊं ......गुस्से में बहुत कुछ सोच डाला ...फिर पिता जी ने मुझे समझाया

तुम्हे इस शहर में रहना है । इस तरह गुस्सा कर के कोई फ़ायदा नही , कुछ सोच के कहने लगे ,

देखो तुम्हे रहना यहीं है …इस तरह झगडा कर के भी फ़ायदा नहीं…यह बताओ यहां मकान

कितने का मिलता है ?…………मैं कुछ समझा नहीं………उस समय मुम्बई में पचास हजार का

मकान मिलता था ………इतना पैसा……पिता जी देने वाले नहीं……॥

…………पिता जी ने कहा चलो देख के तो आते हैं……? मैने कहा ,जब लेना नहीं तो देखने से

क्या फ़ायदा ……? कहने लगे चलो ……देख के तो आते हैं ।

………और फ़िर हम लोग ……अंधेरी पश्चिम में वर्सोबा रोड की तरफ़ गये …॥

आखिर एक घर तै हुआ ……कीमत बावन हजार ……मैंने पूछा भी………इतना पैसा कहां से

आयेगा …? जो मुझे तन्ख्वाह मिलती थी ……उससे खरीद सकना ……मुश्किल ही नही न मुमकिन था

……………आखिर पिता जी ने कहा ………तुम्हें चिन्ता करने की जरुरत नहीं ………।

…कुछ सोच के मैने कहा , एक कमरे का ……ले लिजिये ,कहने लगे ,जब हम लोग आयेंगे…तब

कहां रहेंगे ?


1 टिप्पणी:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

पिता पिता ही होते हैं ...उनसे बच्चों की तकलीफ नहीं देखी जाती है...बहुत रोचक पोस्ट...
नीरज