बुधवार, अक्तूबर 27, 2010

९१ कोजी होम

जब भी ,कोई सहायक किसी निर्देशक से जुड़ता है ......सीखने क़ा मकसद कम ही होता है

पहला काम होता है ,जुड़ के उसका नाम चुराने क़ा ......दुनिया में ढिढोरा पीटने क़ा ,मैं उस ख़ास

निर्देशक क़ा सहायक हूँ .....इससे निर्देशक बनने में वज़न मिल जाता है ........यह आम चलन है

आज सहायक .....कौन बनता है ?

........वह जो .....एक पहचान बनाता है एक्टर से .......उसकी हाँ में हाँ मिलाता है ....उसका बनने

की कोशिश करता है .....सारे हथकंडे अपनाता है ....अपना खेल सही करने के लिए ......कितने ऐसे

होते हैं जिनको प्रेमचंद कौन हैं ?नहीं मालूम होता है .......टैगोर कौन हैं ? मालूम नहीं

...........मैं जब इस फिल्ड में आया ....ऐसे ही लोगों से पहचान हुई ........मुझे लगा इतना पढ़ के

आने की क्या जरूरत थी ........मैं भी इस भीड़ में शामिल हो गया ....लेकिन गुलज़ार साहब के

साथ काम करते हुए यह महसूस किया .......गुरु सही चुना .....जिसको साहित्य क़ा ज्ञान है

मंटो कौन है .....बंगाली सीख के टैगोर को पढ़ा ....शरद चन्द्र को जाना .....यहाँ आ के ग़ालिब साहब

को मैंने पढ़ा ......मेरे साथ जितने सहायक थे किसी को पढने -लिखने क़ा शौक नहीं था ......सिर्फ

यन .चंद्रा .ही पढ़ता लिखता था ......

..........अंगूर फिल्म ......पूरी हो चुकी थी....डबिंग शुरू हो चुकी थी ......डबिंग में गुलज़ार साहब

कम ही आते थे .....मैं अपने साथिओं के साथ , डबिंग कराया करता था...कभी -कधार गुलज़ार

साहब कुछ .....डायलाग की लाइन ठीक करने के लिए कह देते हैं .....या एक दो जगह पे हूँ ..हाँ

लगाने को कह देते हैं ....

हमारी ज्यादा तर डबिंग अजन्ता स्टूडियो में होती थी .....जिसमें दत्त साहब अपने परिवार के

साथ रहते थे ......संजय दत्त साहब अभी तक हीरो नहीं बने थे ......अक्सर स्टूडियो में आजाते थे

डबिंग थेटर में एक राजा नाम क़ा लड़का था ....जिससे संजू सिगरेट मांग कर पीता था ......बचपन

से शैतान थे ......ईसा बाबा से बहुत डरते थे .....बाबा की इज्जत दत्त साहब भी करते थे

............आज हम लोग संजीव कुमार के साथ डबिंग कर रहे थे .......करीब साढ़े ग्यारह बजे वह

आये .......डबिंग शुरू हो गयी .........कुछ सीन डब करने के बाद ....कुछ डायलाग में हूँ क़ा

परिवर्तन करना था ....मैंने संजीव कुमार को चेंज करने को कहा .....संजीव कुमार जी तैयार नहीं थे

मैंने कहा .....यह चेंज करना होगा .....एडिटिंग में यह खाश शाट को लम्बा करना है ......इसलिए

हूँ .....ऐड करना है आप को .....संजीव जी मेरी बात नहीं समझ पा रहे थे .......पता नहीं क्यों

नराज से हो गये ....और उठ के चल दिए ....और कहते गये ......मैं राम लाल के साथ डबिंग नहीं करूंगा

गुलज़ार साहब को भेजो ..........


दुसरे दिन ...गुलज़ार साहब आ गये ...और संजीव कुमार को खुद ही फोन कर बुलाया

.........डबिंग शुरू हो गयी ....कल वाला ही सीन लगाया गया ......और वही ...शब्द ऐड करने को

कहा जो मैंने कल कहा था .....संजीव कुमार ने कुछ नहीं कहा और उनकी बात मान ली ......फिर

गुलज़ार साहब ने सजीव कुमार से कहा .....राम लाल मेरा मुख्य सहायक है ....वह कुछ भी करता है

वैगर इज्जात के नहीं .......अब मैं चलता हूँ मुझे एडिटिंग में बैठना ना ......यहाँ रामलाल

ही रहे गा ....मैं चलूँ...इतना कह के गुलज़ार साहब चल दिए .......आगे की डबिंग मैंने शुरू करा दी

संजीव कुमार मेरी बात को सुनने लगे ......थोड़े से नाराज़ जरुर रहे वह ........

अंगूर फिल्म पूरी हो गयी ....रिलीज की तैयारी शुरू हो गयी ....फिल्म बिक भी चुकी

थी ........दिल्ली यु .पी .ही बाकी थी .....निर्माता बिलकुल खाली हो चुका था ......पैसे ख़तम हो चुके थे

बस से चलने लगे ......उनकी यह हालत देख कर लगा फिल्म बनाने से दूर ही रहना चाहिए .......

पैसा पानी की तरह बहाना पड़ता है ....हर कोई आप से उंची आवाज में बात करता है ...........

फिल्म हिट हो गयी .......जय सिंह जी क़ा सहारा मिल गया मुझे .....अंगूर के बाद दो फ़िल्में

बनाना चाहते थे ,एक गुलज़ार साहब के साथ और एक मेरे साथ ........

दिन बीतता जा रहा था .......कुछ शुरू नहीं हो रहा था .......तभी एक नया निर्माता आ गया गुलज़ार

साहब के साथ फिल्म बनाने के लिए .........निर्माता नाम था विकास मोहन .....

फिल्म शुरू हुई ......नाम (लिबास ) यह मेरी गुलज़ार साहब के साथ आखरी फिल्म थी ......इसके बाद

मेरा साथ ....छूट गया .....आना -जाना भी कम हो गया था ...

.....मैं सुभाष घई जी के साथ लग गया था

1 टिप्पणी:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

अब आप सुभाष जी के साथ के किस्से सुनायेंगे...वाह...आनंद आ गया...