गुरुवार, जून 18, 2009

इश्क

चमक ,चमक के, चमकी ने ,
चमक से अपने माथे पे टिकली लगाई ,
शीशे में घूम फ़िर के ,ऊपर से नीचे तक ,
नजदीक से दूर से ,अपने अश्क को देखा ,
मुस्करा के ख़ुद को शीशे में चूम लिया ,
फ़िर वो छनकती हुई ,घर से निकली ,
रात अँधेरी ,राह दिखती नही ,
फ़िर भी वो चली जा रही थी ,
दूर जमुना किनारे बंसी बजी किसी की ,
चमकी दौडी उस वोर और जा लगी सीने से ,
वहीं खडे -खडे सुबह हो गयी ,
अल्साई आखों को जब उसने खोली ,
तो पाया एक ढाख के पेड़ से लगी खड़ी थी ,
आज फ़िर उसका सजना उसे रुला गया ............

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

ये भी ख़ूब रही.....मजबूर हो जाता है इंसान कितना इश्क में....कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें......परेशानी होती है इससे....

साभार
हमसफ़र यादों का.......