मंगलवार, जून 02, 2009

सफर

मेरे साथ -साथ रहा सफर ,
मंजिल की राह में दौड़ता रहा ,
किनारों पें बच्चों के जूते पडे थे ,
जिन्हें उठा कर ,अपने झोले में डाल लिया ,
एक महक थी उन जूतों की ,
जैसे कुछ देर पहले ही ,
बच्चे के पैरों से गिरा हो ,
आज भी वो जूते मेरे पास हैं ,
लोग अक्सर उसके बारें में पूछतें हैं
एक झूंठ ,की कहानी बुन रखी है
मैं भी कभी पिता था ,
मेरा भी एक पुत्र था ,
एक मेले में खो गया था ,वो जरुर एक दिन आएगा ,
जूते की तलाश में

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