बुधवार, जून 17, 2009

आत्मा की परछाई

चलो एक दुसरे की परछाई पकड़ के चलें ,
जिससे साथ छूटने ना पाए हमारा -तुम्हारा ,
दिन ढलते ही ........
परछाईं साथ मेरा छोड़ के दूर भाग निकली ,
मैं अलसाई आखों से उसे जाते हुए देखता रहा ,
घु़प अंधेरे में खडा ,देखता हुआ अपने को आईने में ,
एक परछाई नज़र आई आईने में ,
अ़ब समझा जो शाम में खो जाती है ,
रात में शीशे में समा जाती है ,आराम करने को ...
अब मुझे अपने साए ,के छुपने का राज पता चल गया ,
मुझे अब पहले जैसी घबराहट नही होती ...............

1 टिप्पणी:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

सुन्दर रचना है।बधाई।