शुक्रवार, जुलाई 31, 2009

एक रात

जिए जा रहा था ,कोल्हू के बैल की तरह ,
आखों पे काली पट्टी बाँध के ,
सांसों को रोक के ,
उसकी गर्म साँसों की बदबू सहता ,
एक डर मुझे छेड़ता ,करीब आने को कहता ,
एक रात वो मेरे करीब आ के बैठ गया ,
दोस्ती करने को कहने लगा ,
डर के उससे मैं भाग गया ,
ऐसे रिश्तों को मैं पी नही सकता,
पर उसने -मेरा पीछा नहीं छोड़ा ,
अंधेरे में बैठ के ,
घंटों मेरा इंतजार करता ,
एक रात --वो मेरे बगल आ के सो गया ,
वीवी समझ के मैं उससे चिपक गया ,
उसके ओंठों को चूम लिया ,
स्वाद बडा रसीला था ,
तभी कमरे की लाइट जल गई ,
पत्नी ने मुझे रंगे हाथों पकड लिया ,
झगड़ पडी और उस डर को लगी खोजने ,
चादर झाड़ कर देखा ,
पलंग के नीचे झुक कर देखा
कुछ नही मिला ,
शक्की निगाहों से ,
मेरे ओठों के रस को पकड़ लिया ,
गुस्से में चिल्ला के बोली ,
किसका रस ओठों पे रखते हो ,
मैं डर गया ,
झूठ समझाया ,
तुम्हारे सिवा -किसका रस ,टिकेगा मेरे ओठों पे ,

1 टिप्पणी:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

सुन्दर रचना है बधाई।