मैं गुलज़ार साहब , का पांचवा सहायक बन गया था । फ़िल्म में सिर्फ़ चार सहायक
होते हैं ,पांचवे सहायक को वेतन भी नही मिलता । मैं कार के पांचवे व्हील की तरहं
था । परिवार का सब से छोटा था ,इस लिए गुलज़ार साहब मुझे सब से ज्यादा प्यार
करते थे । मेरा ख्याल कुछ ज्यादा ही होता था । सेट पे मेरे लिए कुछ खास काम नहीं
होता था । काम करते हुए साल भर बीत चुका था ,अब मैं बेचैन होने लगा ,इसी बीच
एक निर्माता आए जो गुलज़ार साहब के साथ फ़िल्म करना चाहते थे । गुलज़ार साहब
ने निर्माता को कहा ,फ़िल्म के निर्देशक का काम मेरे मुख्य सहायक मेराज को दे दो ,मै
लेखक के वतौर रहूँगा । फ़िल्म बनी "पलकों की छावं में ".........मेराज निर्देशक बने ,और
गुलज़ार साहब का चौथा सहायक ,मेराज का मुख्य सहायक बन गया । और मैं पाचवे सहायक
से तीसरे नम्बर पे आ गया । यह सब सिर्फ़ गुलज़ार साहब जैसा इंसान ही कार सकता है
यही सब छोटी - छोटी बातें हैं ,जो शायद इन्सानको इस मुकाम तक पहुंचाती हैं ,जहाँ वो आज हैं
1 टिप्पणी:
कम शब्द लेकर कंजूसी कर गए यूँ कहिये चाय पीते पीते कोई बात शुरू की ओर जब दिलचस्पी जागने लगी उठ गये .....जारी रखिये .....
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