बचपना मेरा राजकुमार की तरह गुज़रा ,पिता ने हर मेरी इच्छा
को वक्त से पहले ही पूरी कर देते थे । सन ७५ की बात है ,गुलज़ार
साहब के आफिस से कुछ दूरी पे एक छोटा सा कमरा बतौर किराये
पे ले लिया था ।
कुछ महीनों बाद मेरे माता -पिता आए ,मैंने उनकों उसी कमरे
में रहने को कहा । रात का वक्त था ,हम सभी लोग सोने जा ही रहे थे
की मकान मालिक आ गया और कहने लगा "इतने लोग इसमें नहीं
रह सकते यह घर पेइंग गेस्ट बतौर दिया गया है ,आप लोग यहाँ से
जाए " मैं उससे उलझने लगा .पिता जी ने समझाया । हम सभी लोग
होटल सुरंग में चले गये ।
दूसरे दिन ,पिता जी पूछने लगे यहाँ घर कितने में मिल जाता है ?
पिता जी इतना पढाया -लिखाया .....!और घर उस वक्त बम्बई में महंगा ही मिलता
था । मैं चुप ही रहा ,सोचने लगा पिता जी दो -ttचार दिन ही जायेगे
फ़िर दूर कहीं घर ले लूँगा ।
पिता जी माने नहीं ,हम लोग घर देखने के लिए वर्सोवा रोड गए ,
उधर ही नई -नई बिल्डिंग बन रही थी ,एक फ्लैट देखा ,अच्छा लगा उनको ।
कीमत उसकी थी पचास हजार ,मैं सोचने लगा दो सौ पचास की पगार में ,......?
पिता जी ने खरीदा ,और आज तक उसी घर में रहता हूँ ,जिसकी कीमत
आज एक करोड़ है ।
मीरा फ़िल्म की शूटिंग चल रही थी सन ७७ था । गुलज़ार साहब के आफिस
में बैठे सभी सहायक दो दिन बाद की शूटिंग की तैयारी कर रहे थे ,गंगाधर ने मुझे
बुलाया और जो बताया ,वह सुन कर मैं बेचैन हो गया ,पिता जी नहीं रहे ......... ।
कुछ समझ में नही आ रहा था । कैसे मैं लखनऊ जाउंगा ...?
आफिस के कोने में बैठा रोता रहा ,तभी काका कपूर "गौतम कपूर " मेरे पास आया
और मुझे एयर पोर्ट ले गया ,रस्ते में उसी ने बताया गुलज़ार साहब ने तुम्हारे जाने का
टिकट मंगाया है ,और दिल्ली से लखनऊ तक ट्रेन का ,मैं लखनऊ वक्त पे पहुंच गया
मेरा ही इन्तजार हो रहा था । पिता जी को घर से बहार बगीचे में बर्फ की सिल्ली पर
लिटाया हुआ था ,आज तक वो मंजर मेरे दिलो -दिमाग में इस तरह छाया हुआ है की
भुलाये -भूलता नहीं ...........जब तक पिता जी थे ,तब तक अमीर था ..उसके बाद एसा
बेसहारा ,अगर गुलज़ार साहब न होते तो मैं कहाँ होता मुझे नहीं मालूम ....... ।
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