बुधवार, नवंबर 04, 2009

९१ कोजी होम

हम लोग ,कितना झूठ में जीते हैं । रात अच्छी बीती ....सुबह इस आस से खुली , आज तो नौकरी मिल ही जायेगी
बच्चे स्कूल जाने की तैयारी कर रहे थे ...पत्नी उन्ही के साथ व्यस्त थी .....मैं भी बच्चों की तरह तैयार हुआ ...मुझे भी
नास्ता मिला ......जब सुभाष जी के यहाँ जाने लगा ...तो पत्नी ने कहा बच्चों की फीस देनी है .....? मेरे बच्चों की फीस
साल में एक बार देनी होती है ,वह भी करीब साढे सात ह़जार तुषार और मनीष की ...बेटी की तो फीस कम लगती थी
मैंने कहा , किससे मांगे ? इसी सोच में मैं सुभाष जी के घर पहुँचा ....सुभाष जी मेरा ही इंतजार कर रहे थे
मुझे देखते ही बोले .....आवो मिश्रा जी ...आख़िर आ ही गए । सुभाष जी ने गौतम -गोबिन्दा एक उनकी फ़िल्म थी कालीचरण
के बाद ,उस समय सुभाष जी ने मुझ से कहा था ,अपने साथ काम करने के लिए ....तब मैंने उनसे कह दिया था ....मैं गुलज़ार साहब
को छोड़ नही सकता ...... ।
आज मुझे अपने कहे हुए डायलाग याद आ गए .....मैं चुप ही रहा ...सुभाष जी कहने लगे ..कल से आफिस आ जावो
क्या है कुकू को निर्देशन का मौका मिल रहा है ....कुकू इनका मुख्य सहायक था ....रेहाना जी भी तभी आ गई ...मैंने झुक कर उनके
पैर छुए ....फ़िर जब वहाँ से जाने लगा तो सुभाष जी के पैर छू कर चला ....रेहाना जी ने फ़िर पूछा मिश्रा जी तुम्हारे कितने बच्चे हैं ?
मैंने कहा तीन ....यह सुन कर वो बहुत खुश हुई ...उस समय तक उनको अपने बच्चे नही थे .....अशोक की बेटी को अपने ही पास ही रखती थी
खुशी -खुशी घर आया पत्नी को सब कुछ बताया ....वह भी खुश हो गई .....बच्चों की फीस की बात हम लोग भूल ही चुके थे
रात के नौ बजे थे ...हम सभी लोग बैठे खाना खा रहे थे .......तभी मैंने पत्नी से कहा ...फीस का इंतजाम तो नहो हो पाया ....फ़िर पूछा कल
लास्ट डेट है क्या ....?..पत्नी ने कहा ....कल तो नही ....तीस तारीख है ....... । रात का करीब साढे दस बज रहा था .....हम मियां -बीबी
पैसों के बारे में सोच रहे थे .....कहाँ से पैसे मिलेगें ....या कोई जेवर बेचा जाय ? सोचते -सोचते थक गए .....बस बेचने का ही रास्ता ठीक लग रहा
था । तभी दरवाजे की घंटी बजी .....हम लोगो ने एक दूसरे को देखा और लगे सोचने .....इस वक्त कौन होगा ....?
मैंने जा कर दरवाजा खोला तो सामने देवेन्द्र खंडेलवाल ...बासु दा की एक दो फिल्मों में काम कर चुका था ......मेरी पहचान
गुलज़ार साहब के आफिस में हुई थी वह खडा था उसके साथ एक और आदमी जिसे मैं पहचानता नही था .....मैंने अन्दर आने को कहा ...
कुछ पीने को पूछा तो देवेन्द्र ने मना कर दिया .......फ़िर देवेन्द्र ने उस आदमी से मुलाकात कराई .....कहा यह साहब टी पी अग्रवाल हैं
यह एक फ़िल्म बनाना चाहते हैं .....जिसका निर्देशन आप को सौपना चाहते हैं .....मैं खुश हो गया .....वह सूना है ना आप लोगों ने ..जब वो
देता है तो .....मेरी फीस तै की एक लाख रुपया सन ८६ में इतना धन बहुत होता था .....जाते -जाते कहते गए ....अग्रवाल जी खार में सीजर पैलेश
में ठहरे है , कल सुबह दस बजे आ जाइएगा .....लिखत -पढ़त हो जायेगी ...मतलब आप समझ ही गए होंगे .....
दुसरे दिन सुबह मैं पहुँच गया .....मुझे काम शुरू करने के लिए दस हजार रुपये दिए ..........

2 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार ने कहा…

मिश्राजी एक रास्ता बंद होता है तो एक हजार खुलते हैं

ओम आर्य ने कहा…

यह सही बात है एक रास्ते बन्द होते है तो दस खुल जाते है ........पर आगे क्या हुआ इसकी उत्सूकता बढ गई है मिश्रा जी !