मंगलवार, दिसंबर 29, 2009

९१ कोजी होम

सहारा चैनेल .....में काम कर रहा था ...तभी मेरे पुराने निर्माता जय सिंह मिले वह एक सीरियल डी डी के लिए
बनाना चाहते हैं .....मुझे कहा एक कहानी दो ...जिसमें कम से कम दो सौ एपिसोड बनाया जा सके ........महीना भर लग गया कहानी खोजते -खोजते .....एक कहानी मिली ......उनको सुनाई पसंद आ गयी .....डिटेल लिखना शुरू किया ........सीरियल का नाम रखा "देहलीज एक मर्यादा " यह सब करते -करते छे महीना लग गया .......पायलेट एपिसोड शूट हुआ .......देहली डी डी भेजा गया .....वहाँ छे महीने लग गये ....जब पास हो कर आया ...तब तक एक साल लग चुका था ....मैं सहारा में इतना व्यस्त था की मेरे लिए ......निर्देशन करना मुश्किल हो रहा था ....पर जय सिंह की जिद्द थी .....की मैं ही निर्देशन करूं ....मैंने सहारा से छुट्टी ली ....और निर्देशन का काम करना शुरू किया ....डेली टेलीकास्ट होना था ......मुझे करीब सोलह घंटे काम करना पड़ता था ......यह वह दौर था
जब विकली शोप का जमाना था ......और डेली शोप का वक्त शुरू हो रहा था ...एक निर्देशक को महीने में चालीस दिन काम करना पड़ता था .......निर्देशन कम हो चुका था ...बस एक दिन में एक एपिसोड का मटेरिअल शूट करो
और एक -एक सीरियल को चार -चार लोग निर्देशन करते थे .....सब कुछ बड़ा गड-मड चल रहा था सब कुछ मशीन बन चुका था ....काम का इतना बंटवारा हो चुका था की सेट पे पहुँचो तो आप को पता नहीं आप क्या करने वाले हैं .....मैं इन सब से इतना ऊब गया था ...मेरा मन काम में नहीं लगता था ...मुझे लगा अब सीरियल करना मेरे
बस में में नहीं है .....
एक दिन मैंने ......जय सिंह से कहा मैं यह सब नहीं कर सकता ........छोड़ तो दिया मैंने पर मेरे पैसे काफी बाकी थे .....वह सब नहीं मिला ......दुसरे निर्देशक आ गये ....सभी उनको काटने लगे .....और इसी बीच जय सिंह के दामाद का देहांत हो गया ......और सब बिखर गया ......यूनिट के लोगो ने उन पर चीटिंग का केश डाल दिया
किसी को एक पैसा नहीं मिला ......मुझे लगा मेरे छोड़ते ही सब टूट गया ....कहीं मैं मुजरिम बन गया .......
आखिर सब को पैसे मिल गया .......जय सिंह अपने गावं चले गये ......करीब एक करोड़ का घाटा कर के ........आज वो गावं में खुश है अपनी खेती कराते है .....
मैं सहारा से जुड़ा हुआ हूँ .......आज भी गुलज़ार साहब से मिलता हूँ ....पुरानी बाते उठती हैं ....
मैं ही एक सहायक हूँ जो आज भी उनसे मिलता हूँ बरना ....सभी बुजुर्ग हो चुके है ...बाल बच्चो की शादी ब्याह
कर रहें है ...आज भी गुलज़ार साहब उतने ही हिट है जितना मैं उनसे जब पहली बार सन ७३ में मिला था ....
आज भी वो सब कुछ लिखते हैं जो आज की जनरेशन चाहती है ....
दिल ढूंढता है ,फिर वही फुर्सत के रात दिन
बैठे रहें तस्व्वुरे जानां किये हुए
जाड़ों की नर्म धूप और आंगन में लेट कर
आँखों पे खींच कर तेरे दामन के साए को
औंधे पड़े रहें , कभी करवट लिए हुए

(यह सब सन ९९ का दौर था ..........)

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