बुधवार, जनवरी 20, 2010

गुलज़ार साहब के बहुत सारे पहलु के बारेमें बात किया मैंने अभी तक ,

मेरी इच्छा थी ,....आप लोग उनके किसी पहलु से अवगत होना

चाहते हैं तो , मैं कोशिश करूंगा .बताने का । ... आज मैं ,उनके अकेलेपन के बारे में बात करूँगा ।


गुलज़ार साहब ,अकेले रहते -रहते ...अकेले पन से इतना प्यार करने लगे हैं ,

अकेला पन ही उनका साथी बन गया....जैसा वह कहते हैं ....माँ को देखा नहीं ...उनके होश

में आने से पहले ...माँ का इंतकाल हो गया ...मैंने भी उनकी एक किताब में पढ़ा था ...जो उनकी

बिटिया ने लिखा था ...उसी में एक जगह जिक्र आता है माँ के बारे में ....माँ का, आगे का एक दांत

सोने का था ....माँ का प्यार नहीं मिला ...अकेलेपन की सुरवात हो गयी थी ,बंटवारे से ,आ बसे

दिल्ली में ....रात को सोने के लिए ..अपनी दूकान में चले जाते थे ,फिर अकेला पन.....,

उसको काटने के लिए .....जासूसी किताबे पढ़ते ,पढने की आदत यहीं से शुरू हुई ....

लड़कपन में ही मुम्बई आ गये ...बड़े भाई साहब के साथ रहते हुए भी अकेले पन से

घबरा के भाग निकले .....और अँधेरी के चार बंगले में लेखक कृष चंदर के बंगले में आ कर रहने लगे

दोस्तों का साथ जरुर मिला ...फिर भी अकेला पन ......यहीं वह गीत उपजा "मोरा गोरा रंग लै ले ॥

मोहे श्याम रंग दैदे "

उसके बाद का अकेला पन किसी से छिपा नहीं .....शादी की ...बिखेर गयी उनको ...सिर्फ इक ख़ुशी

मिली ...एक सुंदर सी बेटी मिल गयी ....अकेला पन दूर तो हुआ ....पर अकेले पन का जख्म,उनके

अंदर घर तो बना चुका था ....वही उनको भा गया उसी से प्यार करने लगे ...

उनके गीतों को सुन कर उनकों आप पढ़ सकते है ...जान सकते हैं

गुलज़ार साहब के गीतों में कहीं सच्चाई मिलेगी ..... ।

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