गुरुवार, जनवरी 21, 2010

९१ कोजी होम

पीछे मुड के देखने की आदत नहीं है ,गुलज़ार साहब की ।

आज तक ,हजारो लोग मिले उनसे ,बहुत करीब से दोस्त भी हुए ....

फिर किसी मोड़ पे ,छोड़ के चले गये .....जो उनके साथ चले ,वह बहुत कम लोग हैं ।

उनके दोस्तों में ,एक राही साहब थे ,गुज़र गये कुछ साल पहले । शाम होते ही दोनों दोस्त ,

गाहे -बगाहे जब कभी बैठते ....शेर -शायरी की महक बिखरने लगती ।

दुसरे दोस्त थे ,भूषण बनमाली ,जिनका साथ चौबीस घंटे का था । गुलज़ार साहब के साए की

तरह थे .... । पता नहीं किसकी नज़र लग गयी ,अलग हो गये । सालो साल नहीं मिले और इस मुम्बई

शहर से डर गये और भाग गये ....मद्रास गये ,फिर चंडीगढ़ गये ,जाड़ोके ही दिन थे ...लान में धूप ले कर

घर में गये और अंदर जा कर सो गये ......फिर ऐसा सोये, नहीं उठे कभी ......यह भी गुलज़ार साहब को रास्ते

में छोड़ के चले गये ....अब गुलज़ार साहब दोस्त नहीं बनाते ....सिर्फ पहचान ही रखते हैं ।

पहचान दोस्ती नहीं होती ....दोस्ती शोले फिल्म में थी ,नमक हराम में थी ,दोस्ती की यही परिभाषा होती

है ,इसके अलावा सब पहचान होती है । बहुत कम दोस्ती होती है जो बुढ़ापे तक चलती है

मैं तो गुलज़ार साहब ,के बारे में बात करते -करते किधर मुड गया ... मुझे गुलज़ार साहब सन ७३ में भी

बूढ़े क्यों लगते थे ? उस वक्त वह सिर्फ चालीस वर्ष के ही थे ......इसकी चर्चा अगली बार ......... ।

2 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

अभी जयपुर में उन्हें दूर से देखा सुना...और जीवन धन्य किया...वो हैं ही ऐसे जिन्हें देख सुन कर आत्मा तृप्त हो जाती है.
नीरज

Pawan Kumar ने कहा…

गुलज़ार साहब के किस्सों को आप जिस खूबसूरती से लिखते हैं वो लाजवाब है.........हमारा सलाम क़ुबूल कीजिये इस बेहतरीन लेखन के लिए और पुराने दिनों को याद करने के लिए भी