सोमवार, फ़रवरी 15, 2010

अमन की आस

Sunday, February 14, 2010

अमन की आश
बहुत कोशिश करता हूँ ...अपने जख्मों को भूल जाऊं ,पर वो नासूर बन कर बहता ही रहता है लाख मलहम लगता हूँ ........पर ठीक ही नहीं होने देते हैं लोग ,यह कोई और नहीं हैं ,मेरे अपने ही हैं । उसका नाम सलीम था ,उसकोअपने नाम से बड़ी चिड है .....हर तीसरे का नाम जो सलीम है । हम दोनों अक्सर शाम को ,मड के बीच पे मिलते ,यहीं घंटों बैठ कर अमन की बात करते .....कोई रास्ता समझ में नहीं आता .....बात -चीत में अक्सर झगडाहो जाया करता ......इसी बीच एक दिन ,बम्बई शहर बम्मों से दहल उठा ....सैकड़ो की तादाद में लोग मारे गये ...पूरी कौम को गुनाह गार साबित कर दिया गया ...सलीम , मुझसे मिलने नहीं आया ,एक दिन उसके घर गया । मैं जानता था वह भी अपने आप को मुजरिम समझने लगा है .......जहाँ वह रहता था ,पुलिस का जबरदस्त पहरा लगा हुआ था । और सलीम केघर पर ताला लगा हुआ था ....वह डर गया था ।दो चार दिन बाद पुलिस मेरे घर आयी और मुझे पकड के ले गयी ....मुझसे सलीम के बारे में पूछताछकरने लगे । मैं सलीम को दस सालों से जानता था ,हमारी दोस्ती पांचवे क्लास में हुई थी । वह पढने में बहुत तेज था ,क्लास में अव्वल आता था । पर हमारे टीचर पाण्डेय जी उससे खुश नहीं रहते थे । पर सलीम हमारीदोस्ती से बहुत खुश था ,वह मुझ पर भी मेहनत करता ,जिससे मैं भी फ़र्स्ट आऊं ......मैंने पुलिस को बताया ....आप जो कह रहें हैं वह ऐसा नहीं था ...वह तो गोस्त तक नहीं खाताथा ,मुझे भी पुलिस ने मारा और कहने लगी ,जैसा हम कहते हैं वैसा कहो .....लेकिन एक दोस्त के साथ गद्दारी नहीं की ...घर आ गया ,सभी ने डांटा इनके साथ दोस्ती करो गे इसी तरह मार खावो गे .......दस साल बीत गये ,जब भी कहीं बम ब्लास्ट होता मुझे शलीम की याद जरुर आती ...अक्सर भीड़ में आखें उसे खोजती ......गुस्सा इतना आता कभी मिल जाये तो उसे बहुत मरूँगा ....पर मिला नहीं । आज भी मेरा जख्म वैसे ही रिस रहा है आज भी उसकी फोटो सब से छिपा कर रखी है जब भी पुलिस वाले किसी आतंकी को पकड़ते हैं ,मैं शलीम की फोटो उससे जरुर मिलता हूँ । एक दिन पुलिस मेरे पास एक आदमी को पकड के लाई ....और मुझसे पूछने लगी आप इसे पहचानते हैं ...मैं सलीम को पहचान गया ....मैंने कहा हाँ ...जानता हूँ ....पुलिस ने पूछा क्या नाम है इसका ?मैंने कहा श्याम पाण्डेय .....आपका दोस्त है ? हाँ कभी था ....अब नहीं ....क्यों ? पुलिस ने मुझसे पूछा ....अब मिलता नहीं है इसलिए ......पुलिस उसे ले कर चली गयी । मेरी पत्नी ने मुझ से पूछा ,यह कब से आप का दोस्त हो गया ,आज तक तो मैं इससे कभी मिली नहीं । यह मेरा वह जख्म है जो आज तक बह रहा था ....अब शायद पूज जाय जारी .....
Posted by भंगार at 9:22 PM 0 comments
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Wednesday, February 10, 2010

ससुराल
चारो तरफ अन्धकार था ,मैं आखों के सहारे नहीं चल रहा था ,मैं एक अंदाजे से पैर रखता और आगे बढ़ जाता ....यह क्रम कब तक चला मुझे नहीं मालूम ...पैर से कुछ लगा ,अँधेरे में कुछ दिख तो रहा नहीं था ...फिर भी अंदाजे से यह जानने की कोशिश की ,क्या है यह ?झुक कर हाथ से छुआ ,फिर भी कुछ समझ नहीं आया . सोचने लगा क्या हो सकता है ,मेरी जेब माचिस थी उसको निकाला ,जला कर देखने की कोशिश की एक लाश पड़ी थी ,किसी औरत की थी . मुहं से चीख निकलते –निकलते रह गई ......मैं तेजी से चलने लगा ,कैसे भी कर के वहाँ से भाग जाना चाहता था ,गिरता पडता मैं वहाँ से भाग निकला .सडक पे पहुँच गया ,दूर से आती किसी गाड़ी की रोशनी में मुझे समझ में आया मैं तो लार पुर की सडक पे आ गया हूँ . थोड़ी सी हिम्मत आई नयी –नयी शादी का यही हल होता है ....ससुराल गया था बीबी से मिलने ...और माँ ने कहा था ससुराल में रुकना मत ....माँ की बात मानी और दिन ढलते ढलते निकल लिया था . पर रास्ता भूल जाने कारण सडक तक पहुँचने में इतनी देर लग गई ....सामने से आती रोशनी करीब आ गयी ,देखा तो रोडवेज की बस थी वगैर हाथ दिए रुक गयी .मैं उस में सवार हुआ और इत्मीनान की साँस ली (ज़ारी)
Posted by भंगार at 3:49 AM 0 comments
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