शुक्रवार, जुलाई 02, 2010

तीन दिन क़ा सफ़र

.....लखनऊ में मेरे साढ़ूभाई गोमती नगर में रहते है ....उनका अपना बँगला है

पेशे से डाक्टर हैं ......जानवर के ,वहीं मेरी पत्नी ....जौनपुर से सुल्तानपुर होते हुए

लखनऊ आ गयीं थी ....मेरी पत्नी छे बहने हैं ....बहनों क़ा प्यार देख कर यकीन नहीं

होता .....इतना प्यार .....फिलहाल खोजते -खोजते साढ़ू भाई क़ा घर मिल गया ...

बहुत खूबसूरत बँगला .....मोबाइल क़ा बड़ा फायदा है ....खाना भी मेरे लिए तैयार था

.....खाना खाया ......थोड़ी देर आराम किया ........

लखनऊ में एक ऑटो वाले से पहचान हो गयी है .....जब भी मैं आता हूँ

उसको फोन कर देता हूँ .....उसको मेरे सभी रिश्तेदारों का घर मालूम है ....बस उसे यह

कहना पड़ता ....अनन्त राम ...बड़ी बहन के यहाँ चलो .....मेरी ससुराल चलो ....छोटे साले के

घर चलो .....ऐसे ही सब क़ा घर मालूम .है .....थोड़ी देर में अनन्त राम आ गया ......

उसको मीठा और पानी दिया गया ....फिर उससे कहा ,पवारी बुआ के घर चलो ....उनका

बेटे डब्लू का फरवरी में एक्सीडेंट हो गया था ....दो महीने तक कोमा में रहा ....अभी बीस

रोज़ पहले उसे होश आया ......उसे देखने जाना था ...... यही एक लडका था जो मेरी बुआ

क़ा ख्याल रखता था .....मुझे अपना बड़ा भाई मानता मेरी पत्नी उसे बहुत मानती .....

ऑटो से हम लोग डब्लू के घर पहुंचे .....उसे देख कर बहुत ख़ुशी हुई ....उसका

एक अंग बाए तरफ क़ा काम नहीं कर रहा था .......उसको देख कर आँखे भर आयी .....

जब भी मैं गाँव जाता ......खूब आव -भगत करता .....जब तक बैठा उसके पास ....बस एक

ही जिद्द करता रहा ...घरे जाब .....दीदी के लगे .....मेरी बुआ को वह दीदी कहता है ....और

रोने लगता ....हम इहाँ ना रहब .......कैसे भी कर के समझाया .....फिर मिठाई खाने जिद्द करने

लगा .......मिठाई आयी .....केले क़ा बहुत शौक़ीन है .....एक साथ सात -आठ केले खा लेता

पवारी बुआ को ....... दो हजार रूपये दिए .......और अपने घर ...आनन्द नगर आ गया

.... ....ऑटो वाले को तीन सौ रूपये दिए .....और कल आने की बात कह के उसे भेज दिया

.................यह आन्नद नगर वाले घर की ....उसके बनने की एक बहुत खूबसूरत कथा है

यह बँगला तीन विस्वा जगह में बना है .....आगे लान है ...उसी में एक आम क़ा पेड़ है खूब फलता है

.........बात ६८ की है ......मैं यम .काम .में पढ़ता था ......उस समय हम लोग लालकुआं ...गांधी नगर

में रहते थे ......मेरे पास तब स्कूटर था बजाज का .....दो रूपये बारह आने का एक लीटर पेट्रोल

मिलता था ...माँ मुझे पांच रुपया देती थी ...हफ्ते में सिर्फ दस रुपया मिलता था .....लखनऊ

युनिवेर्सिटी में जाना ...काफी हाउस में बैठना ....यह सब दस रूपये में करना होता था । और खर्चे

.....मेरे दो दोस्त थे .....जो नौकरी करते थे .....रतन और गुरचरण सिंह .......दोनों कलर्क थे

महीने के एक सौ सत्तर रूपये मिलते थे । वह करते थे ..........

............दोनों पीते थे .....पर यह सब आदते मुझ में नहीं थी ....दोनों सिगरेट भी पीते थे

मैं शौकिया कभी -कभी एक दो कश ले लेता था .......बाद में कुछ सालों बाद मेरी आदत हो गयी


......
करीब बीस सालों तक सिगरेट पीता रहा .....वैसे सन ९५ से छोड़ दिया ...हाँ तो मैं बँगला बनने

की बात कर रहा था .........सन ६८ की बात है ...एक शाम मेरे दोस्त सरदार गुरचरन सिंह आये

और कहने लगे .....चल कहीं घूम के आते हैं ....मैंने अपना स्कूटर लिया और हम दोनों चल दिए

उस वक्त हम लोगो की ...सबसे खूबसूरत जगह होई थी शहीद स्मारक ...जहाँ बैठ कर गोमती नदी

को घंटो देखा करते थे ......शाम हो चुकी थी ....अँधेरा होना शुरू हो गया ,हम दोनों उठे ....और

अमीनाबाद होते हुए ...घर आ रहे थे ...गुरचरन ने कहा ...मेहरा टाकिज के पास चलते हैं वहां ठंडाई

बहुत अच्छी मिलती है ...बस क्या था ...स्कूटर उधर मुड गया ......


दूकान पे पहुँच के ,गुरचरन ने अपने लिए ठंडाई ली ....और लगा पीने ....फिर मुझसे पूछा

तू पिएगा ......मैंने पहले ना में सर हिलाया ....फिर कुछ सोच के हाँ कह दिया ....एक और ग्लास

आया ......मैंने भी पीया ......औरफिर दोनों घर की तरफ चल दिए .......सरदार बरहा कालोनी में रहता

मैंने उसे रेलवे स्टेशन के पास छोड़ा और घर की तरफ चल दिया ....घर पहुँच के स्कूटर खडा किया

और अपने कमरे में पहुंचा ....फर्स्ट फ्लोर पे मेरा कमरा था ......मेरा कमरा बिलकुल मेरा था ....उसमें

मेरे अलावा ......कोई बैठता तक नहीं था ......घर में बड़ा था ....मेरा रोब कुछ था .....बड़ी बहन

शादी हो के अपने घर चली गयी थी ....उनको दो बेटे हो चुके थे ....जीजा जी पुलिस में इन्स्पेक्टर थे

अमीनाबाद में उनकी पोस्टिंग थी ......मुझे बहुत मानते थे ..जब मैं सातवीं क्लास में था तब उनकी

शादी हुई थी .........तभी ही , लखनऊ जिले का स्पोर्टस हुआ था ....लखनऊ के सारे स्कूली बच्चों

ने उसमे पार्टिसिपेट किया था ......और मैंने दो रेस में भाग लिया था १५०० और ८०० गज की और

दोनों में .....दूसरा नंबर आया ....मेरी फोटो दुसरे दिन अखबारों में छपी ......और मेरे जीजा जी बहुत

खुश हुए ......यह देख कर ...

जब मैं अपने कमरे में पहुंचा और विस्तार पे लेट गया ........तभी भूख क़ा एहसास

हुआ ,मैं उठा और सीढियों से उतर कर नीचे किचन में कुछ खाने के लिए जा रहा था .....जैसे मैं

सीढियां उतर रहा था तभी ....मुझे महसूस होने ....लगा ..जैसे मेरा दिल सिंक हो रहा है .....मैं घबरा

गया ........और नीचे कमरे में आ कर लेट गया ....पीता जी का बेड था,और कहने लगा ....माँ ...माँ

मैं मर रहा हूँ .....मेरा दिल सिंक होना बंद नहीं हुआ ......मैं बिस्तर पे लेट गया ....पीता जी भी आ गये

.....मैंने बताया .......गुरचरन के साथ ठंडाई पी थी ......छोटा भाई ....हनुमान चालीसा पढने लगा

.....फोन की सुभिधा आज की तरह नहीं होती थी ...............बहुत कम होते थे....

अब मुझे अस्पताल ले जाने की बात होने लगी .....यह हमारा मकान गली में था ...

सिर्फ हैण्ड रिक्शा ही आ पाता था .......छोटा भाई बुलाने गया .....मैं गुस्से में पिता जी को कहने लगा

.........गली में आप ने मकान ने बनवा लिया है ......कार तक नहीं आ सकती .......आदमी

घर में ही मर जाय ......जो मुंह में आ रहा था बक रहा था .......रिक्शा आया उस पर मैं बैठा ...पिताजी

भी बैठे और रेलवे अस्पताल की तरफ चल दिए ......तब वही एक अस्पताल था ......उसके बाद

मेडिकल कालेज था .......वह घर से बहुत दूर था .....रिक्शे को करीब चालिस मिनट लगे रेलवे

अस्पताल पहुँचने में .......

डाक्टर ने देखा ......मेरे पेट में एक नली डाली गयी .....फिर उल्टी कराई गयी ....कब

मैं बेहोश हो गया मुझे पता नहीं ....बस डाक्टरों की आवाजे आ रहीं थी ...मेडिकल कालेज , जानेकी

बात डाक्टर आपस में कर रहे थे .......मुझे तब कुछ इस तरह भी लग रहा था ...जैसे मेरे शरीर से

करेंट जैसा कुछ निकल रहा है .........उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं ........

जब मेरी आँख खुली ......तो अपने आप से पूछा मैंने .......ज़िंदा हूँ .?....या मर चुका हूँ ?

छत से लगे पंखों को गिनने लगा ......तभी मेरी नज़र ....जमीन पे पड़ी ....पिता जी सो रहे थे

....अब मुझे लगा मैं ....ज़िंदा हूँ .....इसी पृथ्बी पे हूँ ....

दुसरे दिन मुझे छोड़ दिया गया ........एक दो रोज बाद .....पिता जी मुझसे कहने

लगे ...कहीं जमीन देखो ....जहां मकान बनवाया जाय ......जहां कार आसके ....उस समय

महानगर का ईलाका बस रहा था .......जब मैंने पिता जी को बताया .....तो कहने लगे ...मेरे

आफिस से बहुत दूर है ......रेलवे अस्पताल के पास कोई जगह देखो ?

रेलवे अस्पताल के आस -पास कोई जगह ऐसी थी नहीं .....एक तरफ जेल ...

दूसरी तरफ रेलवे के मकान ,उनके क्वार्टर ......एक जगह नजर आई ....पिता जी के दोस्त पांडे

जी जहां रहते थे .......जो बरहा में आता था ....एक तरफ पी . आर .डी .था ।

वह जगह मैंने पिता जी को भी दिखाया .....उनको भी पसंद आई एक दिन माँ भी देख कर

गयीं .......जगह एक कायस्त परिवार की थी .....और वह गुडगाँव में खुद रहते थे ......आखिर

दो रूपये बारह आने फिट पे बात तय हुई .........वह जगह उस समय कुल साढ़े सत्रह हजार में

खरीदी गयी ......उसमें एक कुआं भी था .....

उस शाम सरदार गुरचरण के साथ जो पिया था ....वह ठंडाई नहीं थी ...बल्कि उसमें

भांग मिली थी .......भांग क़ा नशा कैसा होता है मुझे नहीं मालूम था .........

इस मकान ( बंगले )के लिए मैंने नक्शा बनवाया .....जिसमें तीन बेड रूम एक हाल

बाहर बरामदा .....माँ क़ा अलग कमरा ......एक पूजा का कमरा ......एक बहुत बड़ा आँगन

आँगन से लगा स्टोर रूम उसी के बगल रसोई ....आँगन से लगा एक और बरांडा जिसमें बैठ कर

खाना खाया जाय ...........पूरा मकान मैंने बनवाया .......गृह प्रवेश हुआ .......और जून ७० में

मैं पूना पढने चला गया ............फिर मुम्बई ......और तब से आज तक बस ...दो चार दिन के

लिए जाना होता है ........

इस बार जब पहुंचा ..........न माँ रहीं ....ना पिता जी रहे ....छोटा भाई रहता है

उसका एक बेटा मेरे पास मुम्बई में रह के पढाई कर रहा .....दुसरा लडका चंडी गढ़ मेंनौकरी करता ,

बेटी बेलापुर से मुम्बई में रह के यम .बी .ऐ .कर रही है ....

हम लोग क्या -क्या सोचते हैं ....पर होता वही जो प्रभु चाहते हैं ......सब कुछ बिखर गया

सब इधर उधर .....पिता के जीते जी ......मकान घर रहता है ......उसके बाद ...फिर से ईंटे गारे

की दीवार रह जाती है .......हर कोई उसको बांटना चाहता है .....उसके चीथड़े का देना चाहता है

बहने आ के माता - पिता की यादों को सजोना चाहती हैं ....पर सब झूठ है ....अपना स्वार्थ सिद्ध

करना चाहती हैं ........


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