सोमवार, जुलाई 26, 2010

९१ कोजी होम

तीस सालों की यादों को समेटना .....और उनको सिलसिले वार लिखना

बहुत मुश्किल काम है ......फिर भी ........एक बार कोशिश करता हूँ

देखते हैं कहाँ तक सही उतरती है ........

तेरह जुलाई थी ,और सन था ७२ का । मैं बम्बई शहर में .....पाली हिल

के पाली नाके पे खड़ा ......गुलज़ार साहब का पता पूछ रहा था .....हल्की -हल्की

बारिश हो रही थी ......पास के ईरानी दूकान में बैठा .....बारिश रुकने क़ा इन्तजार

करने लगा ,करीब एक घंटा बीत गया ,पानी रुकने क़ा नाम ही नहीं ले रहा था यह दौर

प्लास्टिक का भी नहीं था ....किताबों को बचाना था भीगने से .....रामलाल जी ने दिया था

गुलज़ार साहब को देने के लिए ....मैंने किताबों को अपनी कमीज के अंदर छुपा लिया

जैसे माँ अपने बच्चे को छिपा लेती है अपने आँचल में .........

ईरानी की दूकान में ,एक भीगता हुआ शख्स घुसा .......दुकानदार ने मुझसे कहा

......इनसे पूछो ....इनको पता होगा ......? मैं उस आदमी की तरफ गया ...और पूछा .....

भाई साहब ......गुलज़ार साहब का पता जानना है .......उसने मुझे ध्यान से देखा और अपने

सामने वाली कुर्सी पे बैठने को कहा ....मैं बैठ गया । उसके कपडे गीले थे और मुहं से शराब की

बदबू आ रही थी ...... । फिर उसने मुझसे पूछा .....कुछ लो गे ....? मैंने नहीं में सर हिला दिया

.....फिर पूछा कुछ खाओगे .....फिर मैंने नहीं में सर हिला दिया ......

........गुलज़ार साहब से मिलना चाहते हो ?

....कुछ किताबे देनी हैं ....मैंने कहा ....

......लेखक हो .....?

...नहीं ....

...तो फिर क्यों मिलना चाहते हो ......?मैं कुछ कहता ...तभी ईरानी दूकान के मालिक ने

कहा ....अबे काहे को भंकस करता है सीधे -सीधे रास्ता बोल .....

....कोजी होम में रहता है ......९१ में .......

दूकान दार ने मुझे अपने पास बुलाया ......और मुझे रास्ता समझाया कैसे कोजी होम तक

पहुंचना होगा .......बाहर अभी भी बारिश हो ही रही थी ....मैं भीगता हुआ कोजी होम की

तरफ चल दिया ......

..........पाली हिल आज वाला पाली नहीं था ......सडक के दोनों तरफ बंगले थे ,जिनमें कटहल

के बड़े -बड़े पेड़ लगे थे .....जिनकी छावं में ....मैं अपने को बचाता हुआ बारिश से चला जा रहा था

.....एक जगह दीवार पे लिखा था कोजी होम .....उस समय चौकीदार नाम की कोई चीज नहीं थी

...ढलान से नीचे उतरने लगा ....तभी एक औरत अपने बच्चे को ले कर जा रही थी ,उसको देख कर

उससे गुलज़ार साहब क़ा पता पूछा ....उसने इशारे से बिल्डिंग दिखा दी .....

...............मैं बिल्डिंग के नीचे खड़ा होकर ....भीगा हुआ सोचने लगा ....इस तरह मिलना ठीक है ?

किताबे निकाल कर देखी ,वह भीगी नहीं थी ....पर मेरे पसीने की बदबू जरुर घुस गयी थी उसमें

.......तभी बिल्डिंग का गोरखा मिल गया ....उससे पूछा .....गुलज़ार साहब इधर रहते हैं ....?

....हाँ ...साहब ...लिफ्ट से चले जाय .....जाली वाली लिफ्ट थी ....पहली बार लिफ्ट में चढ़ रहा था

मुझे कुछ सकपकाया देख कर .....गोरखा मेरे साथ ही चल दिया .....मुझे नौ महले पे छोड़ के

चला गया ......

दरवाजे पे लगी नेम प्लेट पे गुलज़ार लिखा हुआ था ....पर ऐसा लगता था ...जैसे आधा हिस्सा

काट कर प्लेट लगाया गया है ....डोर बेल मैंने बजा दिया .....एक बात और कहना चाहूँगा .....

गुलज़ार साहब दीखते कैसे हैं .....मुझे नहीं मालूम था ....पहली बार मिलरहा था, किसी फिल्म की

मैगजीन में इनकी फोटो तक नहीं देखी थी ....


दरवाजा खुला .......


3 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार ने कहा…

आप शायद इसे पहले भी लिख चुके हैं । फिर से शुरु से लिखेंगे क्या ???

भंगार ने कहा…

pahle jo likhaa thaa usmen kuchh adhuraa pan tha

नीरज गोस्वामी ने कहा…

गुलज़ार साहब के नाम से फिर आ गया हूँ...आगे क्या हुआ...???

नीरज