.......हॉस्टल जब पहुंचा ......जहाँ पहले से हमारे रूम पार्टनर आशोक घई हमारा
इन्तजार कर रहे थे ......हमारे रूम में अंदर से बंद करने का कुंडा नहीं था ....रूम
हमारा डबल था .....जिसमें मैं और अशोक रहते थे .....बाहर ताला नहीं लगा था
मतलब अशोक अंदर ही था ......धका मारा और दरवाजा खुल गया ....कमरे में अशोक
लेटे हुए कुछ पढ़ रहे थे ......मुझे देख कर ऐसा खुश हुआ जैसे ...बिछुड़े हुए भाई मिल
रहें हो .........
मैंने उसे चोरी के बारे में बताया .....सारे कपडे कैसे चुरा लिए गये ...
फिर मैंने उससे गुलज़ार साहब से .....मिलने की बात बताई
......अशोक के चेहरे पे एक ख़ुशी थी जो मुझसे बांटना चाहता था ......
उसने मुझे बताया ......उसके बड़े भी साहब ......अपनी फिल्म ले कर आ रहे थे
जिसमें वह हीरो थे .........फिल्म क़ा नाम था "उमंग " हम स्टुडेंट्स को दिखाना
चाहते थे ....उन्होंने यहीं से एक्टिंग का कोर्स किया था .....पहले बैच के स्टुडेंट थे
नाम था .....उनका सुभाष घई ....जो आज के शो मैन हैं ........
शाम हुई फिल्म देखी ......और शुभाष जी ने इतनी अच्छी एक्टिंग की
थी .....जिसको शब्दों में ब्यान नहीं किया जा सकता है .....मैंने उनसे औटोग्राफ भी
लिया था .....जो आज तक मेरे पास है ......
हम चार दोस्त थे ....अक्सर शाम हम साथ -साथ गुजारते थे ....सतीश
शर्मा हिमाचल का था ....शराब और वह भी देशी ......बहुत पीता था .....दुसरा दोस्त
के .सी .अग्रवाल था .....और तीसरा दोस्त थे अशोक घई......के .सी .पैसे वाले घर क़ा
था ...हम सब को अक्सर हेल्प करता था ....अशोक के पिता डाक्टर थे दिल्ली में .....
एक दो तारीख को उसके पिता ढाई सौ रुपया भेजते थे .....मेरे पिता डेढ़ सौ भेजते थे
और सात -आठ तारीख को .....सतीश शर्मा को सिर्फ सौ रुपया आता था .......बड़ी मुश्किल
से महीना गुजरता था ......
हमारी पढाई के तीन साल कैसे गुजरे पता ही नहीं चला .....हम चारो
अलग -अलग हो गये .....सतीश फेल हो गया था .....अशोक एडिटिंग का कोर्स था
जो हमसे एक साल पहले बम्बई आ गया था ......और अपने बड़े भाई साहब के साथ
पाली हिल में रहने लगा ....और गोगी आन्नद का सहायक हो गया ......फिल्म थी
दूसरी सीता .........मैं और के .सी .जब आये .....उसने किराए का कमरा लिया
महिम स्टेशन के सामने ....राम महल नाम की बिल्डिंग में .........
......मुझे भी शिवाजी पार्क में रोड नम्बर पांच ..पे गोदावरी नाम की बिल्डिंग
में जगह मिल गयी ......बतौर पेइंग गेस्ट ....किराया तीन सौ तीस .....समुन्द्र क़ा
किनारा ....मेरे कमरे के सामने राजा ठाकुर नाम के निर्देशक रहते थे .....जो मराठी
फिल्मों का निर्देशन कर रहे थे .......
.......मेरे साथ .....मेरे बचपन का दोस्त चंदर रहता था ......जो एक
व्यापारी था .....बम्बई में कुछ दिनों के लिए आता था .....और होटल उसे सूट नहीं
करता था ....इस लिए उसने यह कमरा ले लिया था .....और मैं उसके साथ रहता था
......मैं पैसे नहीं देता था .....मेरी कमाई महीनों तक जीरो थी ......एक बार पिता जी
से पैसे मांगे ......उन्होंने पैसे तो भेज दिया .....पर साथ में एक हिदायत दी ......
......नहीं कमा पा रहे हो तो वापस आ जाओ ......इस घटना के बाद मैंने पैसे फिर कभी
नहीं मंगाया ........
गुलज़ार साहब से मिला ......कुछ दिन इन्तजार करने को कह दिया ....उस वक्त
उनकी फिल्म "अचानक " फिल्म की शूटिंग चल रही थी ....मैं बम्बई में इधर -उधर
भटकता रहा ....इसी बीच विनोद कुमार जी मिला ......यह फिल्म निर्देशक थे "मेरे हजूर "
इनकी फिल्म रिलीज हो चुकी थी .......कुछ बात नहीं बनी ....स्वर्गीय बी .आर .चोपड़ा
साहब से मिला ....उन्होंने कुछ मेरी कहानियाँ सुनी ......पर बात नहीं बनी ......
......खाने - पीने की दिक्कत होने लगी ....फिर गुलज़ार साहब के पास पहुंचा ....इस बार
मैंने उनको अपना दर्द .....बताया ....उसका यह असर हुआ .....उन्होंने कह दिया ...मेरे साथ
लग जाओ ......
मोहन स्टूडियो .... फिल्म "अचानक "का सेट ....हास्पिटल ....विनोद
खन्ना जी एक मरीज वतौर विस्तार पे लेटे है .....ॐ शिवपुरी जी एक डाक्टर का
किरदार कर रहे थे ......नर्स के रोल में फरीदा जलाल थीं ....मैं पांचवा सहायक था ........
एक फिल्म में सिर्फ चार सहायक होते हैं .....पांचवे को सिर्फ निर्देशक के कहने पे रखा
जाता है ...मुझे सिर्फ देखना ......था ....काम कैसे और सहायक करते हैं ....
उस समय गुलज़ार साहब के पास एक छोटी सी कार थी हिल मैन जिसे खुद
ही चलाते थे ....मुझे अक्सर लिफ्ट दे देते थे ....
..........
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