फिल्म सेंटर ,हाजी अली दरगाह के करीब है ,पाली हिल से करीब एक
घंटा लगता है .....गुलज़ार साहब खुद ही कार को चला रहे थे ....फिल्म सेंटर
करीब ग्यारह बजे पहुँच गये ....हमारी फिल्म के एडिटर थे वामन -गुरु ........
उस दौर के नामचीन एडिटर थे .......फिल्म सेंटर में गाने रिकार्ड करने का स्टूडियो..
भी था ......हम सभी सहायक यहीं मिलते थे ......मेरा गुलज़ार साहब के साथ आना..
और सहायक को अच्छा नहीं लगता था .....इस चीज का भी मुझे एहसास भी था ...
पर क्या करता .....गुलज़ार साहब खुद ही कहते थे ....अपने साथ आने को ......
.....लंच के समय ....गुलज़ार साहब कुछ नहीं खाते थे .....बस मैं ही उनके लिए
कैंटीन से सैंडविच ले के उन्हें खिला देता था ......मुझे मालूम होता था ...गुलज़ार साहब घर भी कुछ
खा के नहीं चले हैं ......हमें यहाँ पैसे नहीं देने पड़ते थे .....निर्माता फिल्म का देता था ...उसका एक
आदमी भी होता था ....जो इस सब हिसाब देखता था .....एक से दो सीन की एडिटिंग हो पाती थी.
उस समय जिस मशीन पे एडिटिंग होती थी .......उसको मोबिला कहते थे ,जिस पे समय काफी
लगता था ....गुरु दत्त जी बहुत हंसमुख थे .....मुझे बहुत तंग करते थे ...सात -आठ साल पहले उनका
इंतकाल हो गया ....वामन साहब हैं वह बहुत चुप रहते थे .....उस दौर में उनके पास दस से पंद्रह
फ़िल्में होती ......और सहायक होते बीस से पचीस .....आज उनके सभी सहायक एडिटर बन चुके
हैं ....करीब आठ बजे तक एडिटिंग चली .....शाम में ....सभी लोग थक चुके थे .....गुलज़ार साहब ने
वामन साहब से इज्जात ली .....और घर की तरफ चल दिए .......
...........वरली सिग्नल पे कार रुकी ....मैं उनके साथ ही था ....कुछ सोच के मुझसे कहा
चलो ...दादा से मिलते हैं ....हमारी फिल्म के कैमरा मैन थे दादा .....उनका नाम था के .वैकुण्ठ
लेकिन सभी उनको दादा ही कह के बुलाते थे ......हम लोग ....दादा के घर पहुंचे ....गुलज़ार साहब
को देख कर दादा बहुत खुश हुए .......कुछ देर बात चीत हुई ....फिर दादा ने ब्लैक लेबल व्हिस्की की
बोतल खोल दी .....मेरे लिए कोक आ गयी .....बात चीत में रात के ग्यारह बज गये .....हम चल दिए
वहाँ.से ..........गुलज़ार साहब कार चला रहे थे ....खामोश थे वह ..........हम लोग जब बांद्रा
सिग्नल पे पहुंचे .......मैंने कहा .......सर मैं यहीं उतरना चाहता हूँ .....साइड में कार रुकी और मैं
उतर गया .....गुलज़ार साहब ....पली हिल की तरफ मुड़े और चल दिए .....मैं बांद्रा स्टेशन के पास
नॅशनल होटल में पहुंचा ....खाना खाया .......कुल तीन रूपये में खा लिया ,भर पेट , डेढ़ रूपये में माँ
की दाल मिलती थी ....आठ आने की एक रोटी थी ......
........खाना खा कर ......पान की दूकान से एक बिल्स सिगरेट ली ....एक रूपये की
थी .......सिगरेट जलाया और पीता हुआ घर की तरफ चल दिया ...अब मैं डंडा रोड पे
रहता था .....गुलज़ार साहब ने कई बार ...मुझे इस घर के पास छोड़ा .था ......
.......कमरे पे पहुंचा ....रूम पार्टनर सो चुका था .....करीब एक बज रहा था ,रात का ......
कपडे उतारे .....लुंगी सुबह और लेट गया ........
.........
मंगलवार, अगस्त 03, 2010
९१ कोजी होम
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1 टिप्पणी:
गुलज़ार साहब के वृतांत जितनी बार पढो उतनी बार ही आनंद आता है...आप जरा अधिक लिखिए बहुत कम लिखते हैं...कम से कम दस मिनट तो लगें पढने में ऐसा क्या के इधर से पढना शुरू किया और उधर से ख़तम....गलत बात है..
नीरज
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