मंगलवार, अगस्त 10, 2010

९१ कोजी होम

......मेहबूब स्टूडियो में सेट लगा हुआ था ,......वैद के घर क़ा । लोकेशन थी पहाड़ों की

शर्मिला जी ,वैद्द की बेटी हैं .....वैद्द घर से लोगो क़ा ईलाज करते हैं ....लोग आते हैं दवा लेते हैं

....पैसे हैं तो देते हैं ....नहीं है तो .....वैद्द मांगते भी नहीं .....वैद्द की बेटी ,पिता की इन हरकतों

से नाखुश रहती है ......

सीन कुछ इस तरह का था ......संजीव कुमार....... जो पढाई के सिलसिले से इन पहाड़ों

पे आया था ....और पैर में मोच आ गयी थी ......इसी लिए वैद्द के यहाँ आना होता था उसका

लेकिन वैद्द जी .....विद्दार्थी समझ कर उससे पैसे नहीं लेते थे .....

सीन ओपन होता है ......वैद्द की दूकान में वैद्द जी बैठे एक मरीज को देख रहें है ......

मरीज ऐसा चाहिए था जो मरीज लगे .........मैं उस समय दुबला पतला ....चेहरे पे दाढ़ी

मुझे देख कर गुलज़ार साहब ने कहा ........राम लाल को बैठा दो .......मरीज की जगह पे

मैं मरीज बना एक कम्बल ओढ़ा और वैद के सामने बैठा गया .....वैद्द का किरदार

ओंम शिवपुरी जी कर रहे थे ......उन्होंने मेरी नब्ज देखी ....और कुछ पुडिया बाँध के दी ...

और मैं ले कर चल देता हूँ ......पैसे मैं भी नहीं देता .......कैमरा मेरे साथ पैन होता है ,

जैसे मैं दरवाजे से निकलता हूँ ......संजीव कुमार अंदर आते हैं और वैद्द के सामने पड़ी

कुर्सी पे जा कर बैठ जाते हैं .......

इस तरह से एक किरदार निभाया था .......बाद में पता लगा ....अक्सर गुलज़ार साहब

यूनिट में से किसी न किसी को कोई न कोई किरदार दे दिया करते हैं .....यह भी एक तरिका होता

था ....निर्देशन सीखने क़ा ....तब पता चलता था ....कैमरे के सामने खड़े हो के सवांद बोलना

आसान काम नहीं है .....

गुलज़ार साहब ने भी एक फिल्म में काम किया था ......कई सीन का रोल था .......

फिल्म क़ा नाम था "जलियाँ वाला बाग़" उस समय गुलज़ार साहब, तीस पैंतीस साल के

होंगे ......मौसम फिल्म के लिए ....सुरवाती दौर में अमित जी और जयाजी को ले कर यह फिल्म

गुलज़ार साहब बनाना चाहते थे ......किसी वजह से ......वैसा नहीं हो पाया ......

मौसम फिल्म की शूटिंग की एक घटना है ...........हम चार सहायक सिगरेट पीने के लिए

सेट से बाहर आ गये ......अंदर किसी वजह से शूटिंग रुकी हुई थी .....वैसे यूनिट के सभी लोग

अंदर ही थे ......हम लोगो को छोड़ के .......हम सभी थोड़ी देर बाद ....सिगरेट पी के अंदर जाने

लगे .......तभी स्पोट बॉय ने हमें अंदर जाने मना कर दिया .......हम समझ नहीं पाए ....वह ऐसा क्यों

कर रहा है .....जब हम ने पूछा तो कहने लगा ......अंदर शाट चल रहा है ....यह सुन कर ...हमारे

चेहरों पे हवाईया उड़ने लगी ......कुछ भी समझ नहीं आ रहा था .....फिर समझ में आया

अंदर शर्मिला जी तो हैं ही उनका शाट लगा दिया होगा ......

अंदर से .....ओके होने की आवाज आई ....छोटा सा दरवाजा खुला ....हम अन्दर

पहुंचे .....हम चारो लोग .....इस तरह अंदर घुसे ......जैसे हम अंदर ही हों .....

एक डर हमारे चेहरों पे चढा हुआ था .....गुलज़ार साहब कुछ कहें गे .....लेकिन उन्होंने

कुछ भी नहीं कहा .....दुसरे शाट की तैयारी होने लगी ......हम लोग फिर से अपने कामों में

लग गये ......मैंने सहायक कैमरा मैन से पूछा ......यार एक बात बता .....कौन सा शाट गुलज़ार

साहब ने लिया ......?क्लोज था शर्मिला जी का ...खुद ही कलैप भी दिया .....

इस घटना के बाद .....हम चारो सहायक एक साथ सेट छोड़ के नहीं जाते .....एक जाएगा

तीन सेट पे रहेंगे ......एक बात थी ....गुलज़ार साहब ....हम लोगो को कभी डांटते नहीं थे ...

पर हम ....वैगर डांटे बहुत डरते थे उनसे .......आज भी वही हाल है ....हम सभी सहायकों को

......उसी तरह आज भी डांट कर बुलाते हैं

इस फिल्म के म्यूजिक डायरेक्टर "मदन मोहन जी " थे ....एक गीत था ....जिसे

गुलज़ार साहब आंधी फिल्म के लिए लेना चाहते थे ......क्यों नहीं लिया मुझे नहीं मालूम

लेकिन वही गीत मौसम फिल्म में लिया ......बोल थे "दिल ढूडता है ..फिर वही फुरसत के रात दिन "

इसी फिल्म में हमारे साथ .....एक और सहायक जुडा संतोष सरोज ....बोल बचन ऐसा की पूछो

मत .......छे महीने भी नहीं रह पाए .....और लेखक बन गये .....

इस फिल्म में मैं कन्टीन्युटी सीट लिखने लगा था ......एक गीत था ....छड़ी रे छड़ी कैसी

गले में फंसी .......अब होता क्या था ......की यह सीट एडिटर के पास जाती थी ....और एडिटर

उसे देख कर .....गाने को एक सिल सिलेवार में करता ..........एडिटर गुरु जी बहुत मजाकिया थे

और वह छड़ी को चड्डी पढ़ते थे ......क्यों की अंग्रेजी में दोनों शब्दों को सी यच से लिखा जाता

है .....और गुरु जी ....खूब मेरा मजाक करते थे .......

मौसम फिल्म ......छोटी ..मोटी बहुत सी घटनाएं है ......पर उनमें रस नहीं है

इसी दौर में ....प्रेम जी ने गुलज़ार साहब के साथ "मीरा "फिल्म शुरू की ....हेमा जी

मीरा का किरदार निभा रहीं थी .......पति के रोल के लिए .....अमित जी से बात चीत हुई

......लेकिन बात नहीं बन रही थी .....अब संगीत कार किसको लिया जाय ? यह सवाल

ऐसा था .....लता जी ...मीरा के भजन गये .....और लता जी की जिद्द थी ......संगीत कार

हृय्दय नाथ मंगेसकर ही हो ......

यह पेच ऐसा फंसा .....फिल्म लेट होना शुरू हो गयी .....ना हीरो है और ना ही

संगीतकार .......मौसम फिल्म पुरी हो चुकी थी ......कोई दूसरी फिल्म भी गुलज़ार साहब के पास

नहीं थी .....हम सहायक .....सिर्फ गुलज़ार साहब के अलावा बाहर कहीं काम भी नहीं करते थे

.........अब मुख्य सहायक ......यन.चन्द्रा जी थे ......वैसे हम सभी लोग उन्हें चंदू कह के बुलाते थे

......हम दोनों प्रेम जी (निर्माता )से मिले ......और उन्हें अपने फटे हाल से अवगत कराया ...

उन्होंने कहा ......तुम लोग अपनी -अपनी तनख्वाह दस तारीख को ले कर ....जाना लेकिन किसी

और डिपार्टमेंट को मत बतलाना ........ ।

साल भर हम लोग तनख्वाह लेते रहे .....यहाँ तक यह बात गुलज़ार साहब को भी

नहीं मालूम थी .......प्रेमजी बहुत अच्छे इंसान थे ......यह पैसा वह अपनी जेब से ही दे रहे थे

फिल्म की कोई शूटिंग भी शुरू नहीं हुई थी ......इसी बीच गुलज़ार साहब ने एक और फिल्म साइन की

फिल्म क़ा नाम था "हमेसा" इस के निर्माता थे............यस जौहर जी ......हम सभी सहायक बहुत खुश

हुए .....लेकिन फिल्म नहीं बन पायी .....

आखिर मीरा फिल्म की रेकॉर्डिंग शुरू हुई ......संगीत कार थे पंड़ित रवि शंकर जी थे .....

बहुत करीब से उन्हें देखा .......हम लोग तो सहायक थे ......बीटल्स क़ा जमाना था जिनके यह

गुरु थे ...........सारे भजन रिकॉर्ड हुए .............

और शूटिंग शुरू हुई .......राज कमल स्टूडियो में सेट लगा .......

हीरो के रोल के लिए .....विनोद खन्ना जी से बात हो गयी ......

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