........एक बात थी ,गुलज़ार साहब की फ़िल्में ,करीब एक साल में पूरी हो जाया करती थी ।
नमकीन फिल्म को ....पूरे दो वर्ष लग गये .......फिल्म रिलीज हुई बाक्स आफिस पे फेल हो
गयी ......इस बार क़ा खाली वक्त काफी लम्बा था । जीने के लिए कुछ न कुछ तो ...करना ही
होगा । और सहायक .....कहीं न कहीं लग गये ......मैं अकेला गुलज़ार साहब के आफिस आता रहा
यही सोच के ....घर से बाहर निकलूंगा .....तभी कुछ काम मिले गा । गुलज़ार साहब आफिस में बैठते
थे ....वह कुछ न कुछ पढ़ते -लिखते रहते थे । हमारे सामने किचेन था ,उसमें राशन भरना होता
मेराज साहब मेरे दोस्त की तरह थे ....उनकी एक फिल्म सितारा फ्लोर पे थी ....उसकी शूटिंग
में चला जाता था ....कुछ पैसों क़ा जुगाड़ हो जाता था .......माँ मेरी लखनऊ से आई हुई थी
मेरी हालत देख कर ....उनको दुःख हुआ होगा .....उन्होंने मुझे तीस हजार रुपया दिया .....इन पैसों
से मैंने कुछ ब्यापार करने की सोची ......सन ८३ क़ा समय था .......कुछ महीने लगे क्या करूं इन
पैसों क़ा ,कुछ समझ में नहीं आ रहा था .......फिर सोचा फिल्म की एडिटिंग रूम खोल लूँ ......
उसके लिए कम से कम एक लाख की जरूरत थी .....गुलज़ार साहब के मैनेजर गंगाधर से बात की
उसने कहा ....एक लाख होगा तो चार लाख क़ा लोन मिल जाएगा ........बैंक से और स्टीन बैक मशीन
के लिए पैसा मिल जाएगा .......कुछ महीनो तक भाग दौड़ की .......हल कुछ नहीं निकला .....
.................यह बम्बई शहर भी .....बहुत कमाल क़ा है ......धन सभी के पास है पर देता कोई नहीं
मुझे भी कुछ समझ नहीं आ रहा था .......फिर मैंने होम विडिओ कैमरा खरीद लिया ........यह कैमरा
जब मेरे पास आया मेरी हालत सुधरने लगी .....दिन क़ा एक हजार से ...तीन हजार तक कमा कर
देता था ...........
दिन सुधर गये .....गुलज़ार साहब की एक नयी फिल्म अंगूर शुरू हो गयी .....
मुझे गुलज़ार साहब ने मुख्य सहायक बना दिया .........यह फिल्म शेक्सपियर के प्ले
कामेडी आफ इरर पे आधारित थी .......गुलज़ार साहब क़ा मुख्य सहायक होना अपने आप
में बहुत बड़ी बात थी .......अंगूर फिल्म के निर्माता जय सिंह जी थे .......मुरादाबाद से आये थे
स्वेहारा में उनकी खांडसारी की मिल थी .......उनके दामाद राजेंद्र सिंह को फिल्मो क़ा शौक था
उनके लिए ही .....यह सब कुछ हो रहा था .......बड़े दामाद थे .....उनके बेटे की तरह थे ।
अंगूर फिल्म की शूटिंग शुरू हो गयी थी .....एक गाने को फिल्माया जाना था
भाई दास हाल बुक कर लिया गया डेढ़ सौ की भीड़ इकठा करना था .........जूनियर आर्टिस्ट
बुलाये गये ............दीप्ती नवल पे गाना था और संजीव कुमार ,देवेन वर्मा दोनों लोग हाल
में बैठे सुन रहें हैं । शूटिंग शुरू हो गयी ,संजीव कुमार जी को करीब ग्यारह बजे तक आना था
.....इन्तजार करते -करते एक बज गया .......और उनके मैनेजर जमुना दासजी आये और कह गये
आज हरी भाई नहीं आ पायेगें .........लंच के बाद पैक अप हो गया.......
दुसरे दिन फिर ....उतनी ही भीढ़ इकठा की गयी .........फिर संजीव कुमार जी नहीं आये ....
जूनियर आर्टिस्ट का फिर पैक अप हो गया .........पता चला की संजीव कुमार जी आँखों के नीचे सूजन
आ गया था .......वजह थी दो दिन पहले खूब पी ली थी ........ ।
जय सिंह के दामाद बहुत दुखी थे ....इतना खर्च हो गया ...लेकिन शूटिंग पूरी नहीं
हुई .......गुलज़ार साहब के बाद मैं ही बचता था ......जो उनका दर्द कम करता था........
धीरे -धीरे मैं उनके करीब होता चला गया ....मैं वह कड़ी था जो गुलज़ार साहब और उनके बीच क़ा
था .....गुलज़ार साहब ने अपने आफिस में ही निर्माता क़ा आफिस बना दिया था ........हम सहायोकों
को आराम हो गया ........ ।
अब पहले जैसी ....भुखमरी नहीं थी,निर्माता खुद भी दोपहर को खाता था और
हमारे लिए भी मंगवा देता था ....अब मुझे पैसे भी अच्छे मिलते थे .......एक फिल्म ...पुरी होती
और दुसरे की चिंता शुरू हो जाती ....आज क़ा ठिकाना तो होता है कल का मालूम नहीं होता ....
और पैसा भी इतना नहीं मिलता ......जिसको कल के लिए जमा किया जा सके ........
पर हर एक सहायक में कल की एक जबरदस्त उम्मीद होती .........निर्देशक बनने की और जिसके
आप सहायक हैं वह अगर नामचीन है .....तो आप क़ा रास्ता सुलभ हो जाता है ......
एक निर्माता , हमारे आफिस आया और गुलज़ार साहब के साथ फिल्म
बनाना चाहता है और उसका बजट सात लाख क़ा था ............मैंने उसे समझाया ...इतने में गुलज़ार
साहब फिल्म नहीं बना सकते हैं ,वह चला गया ........यह वह दौर था जब वासू चटर्जी इतने बजट में
फ़िल्में बना रहे थे ......फिल्म सोलह यम .यम में बनाते थे .....नये एक्टर के साथ काम करते थे
.........एक दिन आफिस में बैठा हुआ था ,तभी उस निर्माता क़ा फोन आया जो सात लाख में फिल्म
बनाना चाहता था ......अब वह मुझसे बात करने लगा और कहने लगा .......और कहने लगा वह मेरे
साथ फिल्म शूरू करना चाहता है ......मुझे लगने लगा .....मैं भी जल्दी ही निर्देशक बन जाऊँगा
........उस निर्माता से मैं मिला ,वह कहने लगा ....गुलज़ार साहब से स्क्रिप्ट और गाने लिखा लो
.....मैंने एक कहानी फाइनल किया ......एक बौने की कहानी जिसकी शादी एक नार्मल औरत से हो
जाती है ....और किस तरह से उसकी जिन्दगी बीतती है .....यही उस फिल्म की कहानी थी
गुलज़ार साहब से बात की .....उनका बजट लिखने क़ा जादा था ........मैंने उस निर्माता
को समझाया .......क्यों ना हम राही मासूम रजा से बात करे ....वह तैयार हो गया.....मैं उनसे
मिलने के लिए उनके फ़्लैट पे पहुंचा .......मुझे वह जानते थे ....इससे पहले कई बार मिल
चुका था ....मेराज साहब के साथ .......... ॥
जब मैंने उन्हें बताया ....और फिल्म लिखने की बात की ....पहले वह हँसे वह जानते थे
मैं गुलज़ार साहब क़ा सहायक हूँ ........उन्होंने मुझसे पूछा .....उनके पास आने की वज़ह .....मैंने
सच कह दिया ....कहने लगे अच्छा किया जो तुम मेरे पास आ गये .....गुलज़ार साहब लिखते तो वह
ही नज़र आते तुम नज़र नहीं आते ....लगता गुलज़ार की फिल्म है .....निर्देशक की नहीं
उनकी इस दलील मैं नहीं समझा .....हाँ .....यह जरुर हुआ वह हमारे बजट में आ गये ............
मैं और निर्माता उनके यहाँ से निकल आये ....दो -चार दिन क़ा समय ले कर ..........
दिवाली आने वाली थी .....मैंने सोचा निर्माता से कुछ पैसे मांग लूँ ......पर उसका जवाब
सुन कर मैं सकते में आ गया ........वह बन्दा कहने लगा ......अभी तक मैंने नहीं सोचा आप को
निर्देशक लूँ .......? मुझे गुस्सा आ गया ......महीने भर से मैं झक मार रहा था ......तुम्हारे साथ
.....शराफत इसी में है यहाँ से निकल लो .......अंधेरी ईस्ट क़ा बस स्टाप था , जहां हम लोग बाते
कर रहे थे ....
........ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं .....गुलज़ार साहब क़ा कहना है .......इस तरह के निर्माताओं से
पहले अपने आप को साइन करा लो ......पैसे ले लो ....फिर इनसे बात चीत करो या कहानी
सुनाओ या कहीं किसी के पास मिलाने ले जाओ .......
यह पहला झटका था .....उड़ने से पहले क़ा .....कभी -कभी हम सहायक गुलज़ार
साहब की बात को उस वक्त अनसुनी कर देते थे .......यह समझते थे ......हमें काम पाने के लिए
कुछ बातों का समझौता करना चाहिए .........
हम सभी बच्चों की तरह गलतियां करते रहे ........और सीखते रहे ठोकर खा के .......और धोखा
भी खाते रहे ........
अंगूर फिल्म की शूटिंग एसल स्टूडियो में हो रही थी....इस फिल्म में हर सहायक
ने छोटा मोटा रोल जरुर किया था ......मैंने सोने की दूकान पे ...एक छोटा सा किरदार किया था
जो अपनी पत्नी के लिए सोने के कड़े लेने आया था .....संजीव कुमार जब दूकान में आते हैं .....मैं
उठ करचल देता हूँ ......
इसी स्टूडियो में मेरी कहा सुनी हो गयी थी ...मौसमी चटर्जी से ....जो हमारी फिल्म
की हिरोइन थीं ............... ।
2 टिप्पणियां:
बहुत रोचक ढंग से कथा आगे बढाते हैं लेकिन अचानक ब्रेक लगा देते हैं...अब आगे क्या हुआ जानने की इच्छा प्रबल हो गयी है...मौसमी के साथ झगडा याने बहुत बड़ा पंगा ले लिया आपने...अब क्या होगा आपका ये देखना है..कब दिखा रहे हैं?
नीरज
लय को मत तोड़ियेगा ,अच्छा जा रहे हैं ।
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