बहुत सारी ,घटनाएं इतनी बरीक होती हैं ,जिनको कहने में ,मतलब खोल
के कहने में ........उसका रस निकल जाता ,जैसे फूल में से उसका पराग निकाल
दिया जाय .......जो घूँघट में औरत की सुन्दरता है ,वैसे ही कुछ बाते परदें में रहें
ज्यादा अच्छा है ।
विकास मोहन ,ऐसे निर्माता थे ,जिनके पास धन की बहुत ज्यादा
कमी थी ......शूटिंग क़ा दिन तय हो जाता था ......हम सभी लोग आ जाते थे ....एक्टर
भी आ जाते थे ......कैमरा लग जाता था ........लेकिन कैमरा में फिल्म नहीं है ....यह बात
मुझे मालूम है और विकास के छोटे भाई कुमार मोहन फिल्म लेने फिल्म सेंटर गये .......
सेट था रविन्द्र नाट्य मंदिर का .......सभी कुछ तैयार था .....गुलज़ार साहब
ने मुझे बुलाया ,क्या बात है ?इतनी देर क्यों हो रही है .......फिर मैंने सच से अवगत कराया
.......पहला सवाल था ....कैसे हैं यह लोग ? कैसी मजबूरी है इनकी ........?
...................कुमार थोड़ी देर बाद एक चार सौ क़ा डिब्बा ले कर आया ......उसे लोड किया गया
मैंने उनसे कहा ....अरे कुमार साहब इस चार सौ फीट से क्या होगा .........कुमार ने मुझे समझा के
कहा और निगेटिव आ रहा है ......यह सारे भाई गुलज़ार साहब से बहुत भय खाते थे और बचते थे
मेरा कंधा ..होता ...उनके रोने के लिए ........धीरे -धीरे मैं उनके बहुत करीब पहुँच गया ......
धीरे -धीरे उनके बारे में पता लगने लगा ......इन सब भाईओं विकास मोहन
बहुत हिम्मती थे ......इतने तेज की हवा से भी झगडा कर लेते थे ........आज वह एक फिल्म
की मैगजीन निकालते है .....जिसका नाम है सुपर सिनेमा .........
लिबास फिल्म की शूटिंग करते -करते करीब एक साल बीत गया फिल्म भी
करीब -करीब पुरी हो चुकी थी .......काम कुछ नहीं था ......महीने की तनख्वाह भी मिलना
बंद हो चुका था ......सारे रास्ते भी लग रहे थे बंद हो चुके हैं .....अक्सर हर फिल्म पूरी होने के बाद
ऐसा ही हुआ करता था ........हम सभी,लोग बेकार थे ....मेरे पास जो वीडिओ कैमरा था ,जो गाहे -
बगाहे चलता था ,किचेन उसी से चल जाता था .......उधार की जिन्दगी जीने में ,मैं बिलकुल
विस्वास नहीं करता था ....नमक रोटी में घर चला लिया करता था .......आज सोचता हूँ मेरे बच्चे
फिल्म लाईन में क्यों नहीं आये ? वजह उन लोगो ने बचपन में ही देख ली थी .....फिल्म की चकाचोंध
को जान गये थे ......और उस भूख को भी जान गये थे ,जिसको उन लोगो ने कई बार देख चुके थे
लिबास फिल्म आज तक पुरी नहीं हुई ........अभी तक उसका आखरी पडाव बाकी
है ........फिर एक निर्माता आया गुलज़ार साहब के साथ फिल्म बनाने के लिए .....फिल्म क़ा नाम
रखा गया ......इज्जात .......लेकिन इस फिल्म के लिए ,दुसरा मुख्य सहायक आ गया .....मुझे छुट्टी
दे दी गयी ........
मुझे फिल्म के अलावा और कुछ नहीं आता था ........निर्देशक बनने की कोशिश करने लगा ...................... ।
पत्नी ने एक सुझाव दिया,क्यों नहीं सुभाष जी से मिलते ...(.सुभाष घाई )मैं और सुभाष जी के
छोटे भाई अशोक जी साथ -साथ पूना में थे ....औरहम रूम पार्टनर थे ।
बस एक रोज सुबह -सुबह ,उनके घर जा पहुंचा ।
1 टिप्पणी:
शबाना जी के गरम और ऊंचे मिजाज़ के किस्से बीच में छोड़ कर अब आप सुभाष जी की तरफ मुड गए अचानक ही...खैर ये आपका अपना तरीका है कहानी सुनाने का सुनाते रहिये हम सुनते रहेंगे...
नीरज
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