मंगलवार, जनवरी 18, 2011

यादों को दोहराते हुए एक चीज महसूस की ,उन सब में एक रिश्ता हुआ दर्द बहता

रहता है । जो मेरे साथ कहीं चिपका हुआ है जिनको आज .....देखता हूँ ...तो मुझे

अपने अस्तित्व की समझ होती है ।

सन ९५ की बात है ,मैं रमन कुमार जी के साथ काम कर रहा था

उनके साथ वतौर निर्देशक ............हमें तीन-तीन महीने में एक -एक छोटी १६ एम .एम

की फिल्म बनानी थी ................और उन हिरोइन को लेना था जो उस समय चल नहीं रही थी

और जिनसे आसानी से डेट मिल जाय .......और रमन जी ने मुझसे कहा ,उन एक्टर्स को मैं

देखूँ जिनके साथ मैंने काम किया और उनसे बात -चीत करूँ ,उनको कहानी सुनाऊं और पैसे

कीबात चीत करूँ ........................सब कुछ समझने के बाद मैंने ,हेमाजी (हेमा मालनी )

मिलने के लिए उनके मैनेजर से बात की ...........और टाइम मिलने क़ा ले लिया ।

हेमा जी के साथ तीन फिल्मे वतौर सहायक की थी ,पहली फिल्म थी "खुश्बू"

और दूसरी फिल्म थी "किनारा "और तीसरी फिल्म थी "मीरा " मैंने सोचा चलो दस सालो बाद उनसे

मिलने जा रहा था ...बहुत सारी यादे जुड़ने लगी .....वह घटनाएं याद आने लगी जो इन फिल्मो में

घटी थीं ...............


दुसरे दिन मैं तैयार हो के करीब ग्यारह बजे हेमा जी के बंगले पे पहुंचा

पहले उनके मैनेजर से मिला उनसे बात चीत की ......और उनको सारा अपना प्रोपोजल बता दिया

..............थोड़ी देर इन्तजार के बाद हेमा जी आ गयी .....मैं खुश था आज कितने सालों बाद

उनसे मिल रहा था ............मैं खडा हुआ हाथ जोड़ के प्रणाम किया ......वह बैठ गयी और बात

चीत क़ा सिलसिला शुरू हुआ ........वह मुझे पहचान नहीं रही थी ...............उन्हें फिर याद दिलाने

की कोशिश करने लगा ..........पर उन्हें कुछ भी याद नहीं आ रहा था ...मैं कौन हूँ ....?

उन्हें तो कुछ भी याद नहीं आ रहा था ........फिर मैं भी चुप हो गया .....काम की बात होने लगी

मैं अपने आप से बहुत शर्मिन्दा था .....जैसा मैं कहा करता था मैं इनको जानता हूँ

उनको जानता हूँ...अब नहीं कहता .............कभी -कभी इसके उलटा भी हो जाता है ।

...............................कुछ साल पहले मैं गुलज़ार साहब के घर गया ....जैसे मैं गेट से घर में पहुंचा

तो सामने से आती हुई शर्मिला टैगोर जी थी ....मैंने उन्हें पहचान के नमस्ते किया ...उन्होंने मुझे

दुसरे पल मुझे पहचान लिया .....उनसे मैं करीब बीस साल बाद मिल रहा था ............

मुझे जान के खुशी हुई की वह मुझे पहचान गयी और मेरे बारे में जानने की

कोशिश की ......जब की मैंने उनके साथ सिर्फ एक फिल्म की थी नाम था "मौसम ".....उसके

बाद कोई मुलाक़ात नहीं हुई थी....मेरी जो धारणा बनी थी वह ख़तम हो गयी ......


कुल दो महीने बाद यह काम बंद हो गया .......जो आदमी काम करवा रहा था

वह किसी केश में फंस गया था .................

1 टिप्पणी:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

कुछ लोग जान कर अनजान बनते हैं...और कुछ अनजान भी जाने पहचाने लगते हैं...
नीरज