रात के दो बजे थे ,
आंखों में नींद नहीं थी ,
इंतजार था -जवान बेटे का ,
घर आया नही था अभी तक ,
.........दरवाजे पे दस्तक हुई ,
समझ गया ............,
बचपन से ही ,दरवाजे की कुंडी ऐसे ही खटकाता था ,
दरवाजा खोला -,
सामने खड़ा था ,सर झुकाए ,माफ़ी मांगने के अन्दाज में ,
बोलता कम था -वो बचपन से ,
पहले उनके बचपने से डर लगता था ,
खो jane का ............!
जवान होने पे उनकी जवानी से ,
खोफ लगता है
2 टिप्पणियां:
बहुत मनभावन रचना है...बधाई...
नीरज
श्रीमान,
गनीमत समझिये,
इस घोर सभ्यता के युग में,
वह कम से कम,
सर झुकाए,
अपराधबोध में खडा था,
वरना कानो को उम्मीद
अधिक यह रहती है कि
चंद कठोर शब्द उड़ते हुए
कानो के अन्दर घुसे और कहे
कि, इतनी देर कर दी,
किवाड़ खोलने में,
किस तरह के इंसान हो,
जो देर रात में भी,
सुख की नींद सोते हो !
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