सुबह से ,
सोच -सोच के ,
लिखा हुआ बार -बार ,
काट रहा था ,
एक भी शब्द लिखना ,
भारी पड़ रहा था ,
स्वाइन का रोग सोच पे हावी था ,
विचारों की खाईं खोद -खोद थक गया
सपने चुनने की कोशिश की तो ,
वो भी दूर भागने लगा मुझसे ,
जाल विछा के पकडा ,एक छोटी सी मछली ,
हथेली पे रख के उसको ,पढ़ने लगा ख्यालों को ,
छटक के मेरी हथेली से ,एक विचार ,
उस अथाह समुन्द्र में जा गिरा ,
कुछ देर तक उसे देखता रहा ,
पकड़ से दूर जाने पे उसकी खुशी देखी ,
मन कुछ हल्का हुआ ,
सोचा आज स्कूल ,कालेज की तरह ,
अपनी सोच को भी बंद कर देता हूँ ,