आप लोग यह सोचते होंगे ,मैंने इन यादों का नाम
९१ कोजी होम क्यों दिया ? यह घर वो है ,जो इन यादों से
judaa है । सब कुछ यहीं से शुरू होता ,यहीं आ कर
ख़त्म हो जाता । शैफ जी के बारे में एक याद है ,जब
वो तीन या चार वर्ष के थे । गुलज़ार साहब की एक फ़िल्म
नमकीन थी ,तीन बहनों की कहानी थी । एक ट्रक चालक
उनके घर में एक किरायेदार वतौर रहता ,कहानी इन तीन
बहनों के इर्द -गिर्द घुमती ,बडी बहन शर्मिला टैगोर ,शबाना जी
और चिंकी ,ट्रक चालक थे संजीव कुमार । शर्मिला जी ,कभी -कभी
अपने बेटे शैफ को साथ ले आती थी । फ़िल्म का सेट, फ़िल्म सिटी की
पहाडी पे लगा था । एक घर ,दो कमरों का ,बाहर आंगन में एक
कुआँ ,शैफ, जब भी आते ,उसी घर के आंगन में खेलते ,कभी -कभी
खेल -खेल के बोर हो जाता ,तो फ़िर माँ के पास आ जाता ,शर्मीला जी
मेरी तरफ देखती ,और इशारे से कहती इसे बाहर ले जाओ ,एक बार
मुझे एक खेल सूझा ,शैफ को बहलाने के लिए ,आँगन के कुँए से एक
छोटा सा मेढक निकाला ,उसके पैर में धागा बांधा ,और एक सिरा
शैफ के हाथ में थमा दिया ,बस फ़िर क्या था । शैफ को एक चलता
फिरता खिलौना मिल गया । अब जब भी सेट पर आते ,और मुझे
वही खिलौना देने को कहते ।
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