बरसों पहले एक सोच को लिखा था ,
जो आज तक मेरे ख्यालों में पडी है ,
सिकुडी -मुडी पडी ,मुझे देखती रहती है ,
कभी -कभी आखें तरेर के कहती ,
मुझे किसी हाट में क्यूँ नही ले जाते ?
मैं भी बिकना चाहती हूँ ,
किसी के बेड -रूम में जीना चाहती हूँ ,
मैं कम अक्ल समझ के उसको ....,
उसकी बातें अनसुनी कर देता हूँ ,
आज वो जवान हो गयी ,
बहुत खूबसूरत उसके अल्फाज हैं ,
मीटर भी बहुत बैठा हुआ ,
तबले की धाप पे -- वो जग जाती ,
मुझे घूरती - और नाचने लगती ,
मुझे शर्म -सार कर के ,
एक दिन किसी के साथ भाग गयी ,
सुना है .....दिल्ली के किसी गलियारे की नूर है ,
1 टिप्पणी:
वाह... वाह.... वाह.....लाजवाब....और क्या कहूँ सूझ नहीं रहा..
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