मीरा फ़िल्म का दौर था ,जब शूटिंग नही होती ,हम सभी लोग
आफिस आना होता है । मैं अकेला आफिस में था ,एक आदमी
आया उसने बताया वह एक छोटी फ़िल्म बनाना चाहता है ।
और उसका बजेट सिर्फ़ सात से आठ लाख का था ,मैंने उसे समझाया
गुलज़ार साहब इस बजेट में फ़िल्म नही बना सकते हैं ।
वह आदमी जाने लगा ,फ़िर मुझ से मिलने की बात कर के चला गया ।
सन ७८ -७९ में एक छोटी फ़िल्म इस बजेट बन जाया करती थी
फ़िल्म को सोलह एम् .एम् में शूट करना होता --कहानी कुछ ऐसी
होती -जो एक ही सेट पे पूरी हो जाय ।
मैं उस आदमी से मिला ,उसने मुझसे कहा आप इस फ़िल्म
को करें ,वह आदमी पवाई इलाके में कहीं रहताथा ।
मै कोशिश करने लगा ,पहले एककहानी तै करनी थी । स्वदेश
दीपक की कहानी "जलता हुआ रथ " ली जो एक बौने की कहानी थी जिसकी शादी ,
एक नार्मल लडकी से हो जाती है ,और कहानी आगे चलती है .......,
अब इस कहानी को लिखने के लिए एक नामी लेखक की जरूरत
थी ---गुलज़ार साहब का नाम आया पर वो हमारे बजेट मैं नही बैठ रहे थे
मैं " राही मासूम रजा " जी के पास गया वो हमारे बजेट में आ गए ,पर उन्होंने
एक बात कही अच्छा हुआ तुम मुझ से लिखा रहे हो ....... गुलज़ार लिखता तो
कमाल का लिखता ,पर तुम नज़र नही आते ....वो ही वो नज़र आते । ।
मैं लिखूं गा तो तुम नज़र आवोगे .........दिवाली आ रही थी पैसों की
जरूरत थी ,जब उस आदमी से पैसे के लिए कहा ,तो वह कहने लगा ,मैंने
अभी सोचा ही नही की आप को निर्देशक लूगाँ .....यह सुन कर मेरा भेजा गर्म हो
गया । मैंने कहा आज तक मैं क्या कर रहा था ,उम्र में बहुत बडा था ..बच गया
यह किस्सा गुलज़ार साहब को बताया ,इस तरह के लोग अक्सर आप से मिलेगें
सब से पहले इनसे अपने को साइन करा लो और कुछ पैसे ले लो .........
1 टिप्पणी:
आप के संस्मरण बहुत रोचक हैं क्यूँ नहीं इन्हें एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवा देते ताकि पढने वाले एक सांस में सभी किस्से पढ़ सकें...
नीरज
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