गुरुवार, अक्तूबर 08, 2009

प्रतिशोध

गावँ जब मैं पहुँचा ,
जहाँ मैं पैदा हुआ था ,
बचपन जहाँ खेला ,
कुएं में लालटेन का फेंकना ,
दूसरे के गन्ने के खेतों में ,
चोरी -चोरी गन्ने चूसना ...,
बचपन का दोस्त बूढा हो गया ,
बेटे उसके जवान हो गए ,
दोस्त मेरा दोस्त के यहाँ ही ,
मजदूरी करता ..........,
था तो उसके स्कूल का चपरासी ,
पर करना पड़ता था , घर का काम ,
भैंसों को चारा देना उनको दुहना ,
अब वो रिटायर हो गया ,आजाद हो गया ,
दोस्त की मजदूरी करते -करते ,
अब मेरे पास खडा उसका जवान बेटा ,
गुस्से से उस पंडित को देखता ,
जिसने उसका घर लूट लिया था ,
आक्रोश हर किसी के मन में था ,
उस पंडित के लिए ,
अब वो भी बूढा हो गया ,
जिन्दगी से बहुत प्यार करता ,
मौत से इतना डरता .......,
घर के दरवाजे लोहे के बनवा लिए ,
पर एक रात .....,
उस पर एक बिल्ली ने झपटा मारा ,
शेरनी की तरह उसका गला दबोच लिया ,
तब तक नही छोडा ,जब तक साँस रुकी नहीं ,
वो बिल्ली किसकी थी ...?
किसी की नहीं .......,
सुना है ....गावँ वाले कहते हैं ,
उनका प्रतिशोध .....अब अंत हुआ ,

कोई टिप्पणी नहीं: