गुरुवार, जुलाई 28, 2011

यादें

आज फिर से एक वाकया सुनाता हूँ उस बचपने क़ा
जिसे हम याद ही नहीं करना चाहते हैं ,
बड़े हो गयें हैं ना ?
समझ हमें कुछ ज्यादा हो गयी है ना ............
लड़कपन में हम बच्चे चोर -चोर खेलते थे ......खेलते -खेलते
रेलवे स्टेशन पे आ जाया करते थे लखनऊ स्टेशन पे एक नंबर
प्लेट फ़ार्म से दो या तीन नंबर प्लेट फ़ार्म पे जाने के लिए सुरंग
बनी थी हम लडके उसमें ज्यादा तर खेलते हुए जाते थे (अब आप यह भी
सोच सकते थे उस समय कितनी कम जनसंख्या थी यह बात सन ५४,की
बात है )हम बच्चे स्टेशन पे खेलने तक चले जाते थे मैं सुरंग से भागता हुआ प्लेट फ़ार्म
पे आरहा था तभी एक झन्नाटे से मेरे गाल पे एक झापड़ पड़ा ...............
आज भी वह लपड़ याद है ...................हमारे दोस्त ,जो हमारे साथ खेल रहा था
उसके पिता ने मारा था ..................क्यों मारा था मुझे नहीं मालुम ?
आज सोचता हूँ उस समय के पिता अच्छे नहीं होते थे ..................
अपने बेटे को नहीं मारा ,,,,,,,,,मुझे क्यों ..............
आज भी वह दर्द मेरे अन्दर कहीं छुपा हुआ है ......चार उंगलीओं के निशाँ आज भी खोजता हूँ
........................अपने चेहरे पे ........

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