अब जब कभी यूँ बैठा हुआ सोचता हूँ .......
अगर मैं आसमान में कहीं बैठा हुआ ,यह
सोचता ...इस ज़मीन पे मेरी क्या हैसियत है ?
तो समझ में आता है रेत के एक कड़ के बराबर
है .........
और यह पृथ्वी अपनी धूरी पे घूमते हुए सूरज
क़ा चक्कर लगा रही है .......
इसके साथ चिपका हुआ समुन्द्र भी नहीं गिरता
यह सब क्या .....?
इस पृथ्वी के बाहर हमारा क्या अस्तित्व है ?
कुछ भी नहीं .......
फिर भी अपना अपना अपना कहते हुए मरते रहते हैं
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