शनिवार, जून 29, 2013

अर्जुन

मिटटी के बर्तन में चाय पीने  का मजा ही कुछ और हात भी नहीं जलता और मुहं भी नहीं ......कुछ देर बैठने के बाद यह लगने लगा ...मुझे घर चलना चाहिए .....फिर मैंने इजाजत 
ली और घर की तरफ चल दिया ......अर्जुन कहने लगा शाम को मिलते हैं ....मैंने हाँ में सर हिलाया ......और स्कूल के में गेट की तरफ चल दिया ...

      खेतो की पगडंडी से होता हुआ अपने घर की तरफ चल दिया .....अभी कुछ ही दूर ही चला था की सामने से गाँव के पंडित जी आते हुए नज़र आये ....वैसे वह मेरे हम उम्र ही थे लेकिन यह रिवाज़ है गाँव का ....पैर छूने का .......छूटते पूछ ही लिया मिल आये प्रिंसपल साहब से ......! पूछने में तंज़ था ............एक अर्जुन था .......जिसकी अमीरी से लोग जलते थे .......

       हाँ मिल आया ....आप के तो बचपन के दोस्त थे ,वैसे दोस्त तो वह हमारे भी थे .....इस जंग में हम भी उनके साथ थे ....स्कूल बनाने से यहाँ तक के सफ़र में अकेले ही साड़ी मलाई खा डाली .....हम लोगो को तो खुरचन भी नहीं मिली ,मैं खुच समझा नहीं ......अरे खुरचन का क्या मतलब है ?   अरे हमारे भाई  को टीचर रख सकते थे ...वह भी नहीं किया ...,,,हर गाँव वाले के पास यही दुःख था ...हमारे लिए कुछ नहीं किया ....
 
       मैंने मजाक में कह दिया ...पंडित जी आप का काम तो बहुत अच्छा चल रहा है ....हमारे तो दिन बदल गये जैसे घूर के दिन बदलते है वैसे मेरे भी दिन फिर गये है अब जेब गर्म रहती है ....हम दोनों मिल के हंस पड़े ....बच्चा मैं सही कह रहा हूँ यह जो लक्छमी है इसके रंग बड़े तेज है जिसके पास है ....उसका रंग बढ़ा देती है ...अब मुझे ही देख लो एक जमाना वह था जब तन पे कपड़ा नहीं था .......आज देखो यह शिल्क का कुर्ता है 



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