आज जब मैं उनसे मिलने लगा हूँ ,गाँव में एक हवा उड़ चली है ......राम लखन उनसे जा मिला है ..........लेकिन
अन्दर ही अन्दर सभी उससे दोस्ती करना चाहते हैं ......गाँव में झूठी शान सभी को बहुत होती है .....जेब में एक पैसा नहीं है ..........बस झूठ की चादर सर पे ताने घूमते हैं .......छुप के उधार माँगने आते हैं अँधेरे में ......प्रेमचन्द साहब जिन किसानो की बात मानसरोवर में कर गये हैं ........वह अब रहे ही नहीं ......अब एक झूठ की फसल पैदा हो चुकी है जो बहुत जोरो से लहलहा रही है खेतों में खूब पैदा वार है लेकिन तन पे कपड़ा ठीक से नहीं है ............पंडित माँसाहारी हो चुके हैं जनेउ उतार के फेंक चुके है .....
अर्जुन इन सब से अलग उसकी कोई जात है ही नहीं .......वह बिना किसी मुखौटे के जीता है कहता है मैं इंसान हूँ .......उसके स्कूल में पढने वाला बच्चा जब पास हो जाता ,तब उस गरीब लड़के की माँ अर्जुन के लिए मीठा ढोकवा बना के लाती है जिसे अर्जुन बहुत मन से खाता है ........आज के अर्जुन में और कल वाले अर्जुन में बहुत फर्क है ......कभी -कभी लगता है ......अर्जुन की लडाई अपने अस्तिव की थी अगर वह नहीं लड़ता तो मारा जाता ........इस कलयुगी युद्ध में ....
पूजा पाठ आज वह करने लगा ......मुझे यह देख के झटका लगा था ......मैं पूछना चाहता था यह धर्म -कर्म कब से करने लगे हो .........मैं बैठा हुआ दशहरी आम खाता रहा .....आम बहुत मीठा था उनके ही बाग़ का था .....यह मुझे मालूम था ....
वह पूजा कर के बाहर आया .....उसके हाथ में एक थाली थी ,जिसमे भगवान् का भोग लगाया हुआ था .....भोग क्या था एक थाली में पूरा खाना लगा हुआ था .....पास ही एक गाय बंधी हुई थी उसकू सब खिला दिया .....वह गाय भी भोग का इन्तजार कर रही थी ........मैं तो आम खाने में लगा हुआ था ......अर्जुन अपने शरीर से गमछा उतारा और पैंट और शर्ट दाल ली ......और पास पड़ी रिवाल्वर गले में लटका लिया ........यह देख के .....
मैंने पूछ ही लिया ......यह तम्चा कब खरीदा ?क्या अब इसकी जरूरत पड़ती है ......यह सुन के अर्जुन हंस पड़ा
............कहने लगा यह अब जनेऊ जैसा हो गया .....ना पहनू तो अधूरा सा खुद बा खुद लगने लगता हूँ ............
अन्दर ही अन्दर सभी उससे दोस्ती करना चाहते हैं ......गाँव में झूठी शान सभी को बहुत होती है .....जेब में एक पैसा नहीं है ..........बस झूठ की चादर सर पे ताने घूमते हैं .......छुप के उधार माँगने आते हैं अँधेरे में ......प्रेमचन्द साहब जिन किसानो की बात मानसरोवर में कर गये हैं ........वह अब रहे ही नहीं ......अब एक झूठ की फसल पैदा हो चुकी है जो बहुत जोरो से लहलहा रही है खेतों में खूब पैदा वार है लेकिन तन पे कपड़ा ठीक से नहीं है ............पंडित माँसाहारी हो चुके हैं जनेउ उतार के फेंक चुके है .....
अर्जुन इन सब से अलग उसकी कोई जात है ही नहीं .......वह बिना किसी मुखौटे के जीता है कहता है मैं इंसान हूँ .......उसके स्कूल में पढने वाला बच्चा जब पास हो जाता ,तब उस गरीब लड़के की माँ अर्जुन के लिए मीठा ढोकवा बना के लाती है जिसे अर्जुन बहुत मन से खाता है ........आज के अर्जुन में और कल वाले अर्जुन में बहुत फर्क है ......कभी -कभी लगता है ......अर्जुन की लडाई अपने अस्तिव की थी अगर वह नहीं लड़ता तो मारा जाता ........इस कलयुगी युद्ध में ....
पूजा पाठ आज वह करने लगा ......मुझे यह देख के झटका लगा था ......मैं पूछना चाहता था यह धर्म -कर्म कब से करने लगे हो .........मैं बैठा हुआ दशहरी आम खाता रहा .....आम बहुत मीठा था उनके ही बाग़ का था .....यह मुझे मालूम था ....
वह पूजा कर के बाहर आया .....उसके हाथ में एक थाली थी ,जिसमे भगवान् का भोग लगाया हुआ था .....भोग क्या था एक थाली में पूरा खाना लगा हुआ था .....पास ही एक गाय बंधी हुई थी उसकू सब खिला दिया .....वह गाय भी भोग का इन्तजार कर रही थी ........मैं तो आम खाने में लगा हुआ था ......अर्जुन अपने शरीर से गमछा उतारा और पैंट और शर्ट दाल ली ......और पास पड़ी रिवाल्वर गले में लटका लिया ........यह देख के .....
मैंने पूछ ही लिया ......यह तम्चा कब खरीदा ?क्या अब इसकी जरूरत पड़ती है ......यह सुन के अर्जुन हंस पड़ा
............कहने लगा यह अब जनेऊ जैसा हो गया .....ना पहनू तो अधूरा सा खुद बा खुद लगने लगता हूँ ............
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